Wednesday, 29 October 2025

सामाजिक बदलाव में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका

 -    डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव

 

        पत्र-पत्रिकाओं का समाज के शिक्षित वर्ग से बड़ा ही घनिष्ठ संबंध है क्योंकि इन्हीं के माध्यम से हम समाज में हो रही घटनाओं, हलचलों, विकासोन्मुख कार्यों, नवीन खोजों के साथ ही साथ सामाजिक विद्रूपता से भी साहित्य की अनेक विधाओं द्वारा रू-बरू होते हैं। एक प्रकार से पत्र मानव के मानसिक व बौद्धिक छुधा को मिटाने का कार्य करते हैं। यह एक ऐसा मानसिक भोजन है जिसमें षट-रस नहीं अपितु नव रस हैं। हम इस साहित्य के माध्यम से केवल समाचार, घटना, विचार अथवा काल्पनिक कथाओं के इतिवृत्त से ही परिचित नहीं होते अपितु हमें उन पर विचार करने और विश्लेषण करने की प्रेरणा भी मिलती है। हम उन पर परिचर्चा करते हैं और एक समूह के अन्तर्गत अपनी भी एक पहचान बनाते हैं।

        भारत में पत्र का प्रार्दुभाव राजा राममोहन राय के अध्यवसाय से बंगाल मे सन् 1816 मे बंगाल गजटनाम के पत्र से हुआ। इसके अतिरिक्त उन्होंने मिरातुल’, ‘संवाद कौमुदीबंगाल हेराल्डनामक पत्र भी निकाले। किन्तु हिन्दी का प्रथम पत्र उदंत मार्तण्ड’ 30 मई 1926 को पं0 जुगुल किशोर शुक्ल के संपादन में प्रकाशित हुआ। इसके बाद बंगदूत’, ‘प्रजामित्र मार्तण्डसमाचार सुधा वर्षणकलकत्ता से ही प्रकाशित हुए। इनमें समाचार सुधा वर्षणदैनिक और अन्य पत्र साप्ताहिक थे। इसके बाद काशी से सुधाकरबनारस समाचार, आगरा से प्रजा हितेषीबुद्धि प्रकाश, बरेली से तत्वबोधिनी’ (साप्ताहिक), मालवा से मालवा’(साप्ताहिक), जम्मू से वृतान्त’ (मासिक), लाहौर से ज्ञान प्रदायिनी पत्रिका’ (मासिक) प्रकाशित हुई। हिन्दी पत्र-जगत में क्रान्ति की अवस्था तब आयी जब भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सन् 18680 में साहित्यिक पत्रिका कवि वचन सुधाका प्रवर्तन किया। तदुपरान्त इन्होंने अपनी तीन अन्य पत्रिकाएँ हरिश्चन्द्र मैगजीनहरिश्चन्द्र चंद्रिकाबाल बोधिनीभी प्रकाशित की। इसके बाद हिन्दी पत्रिकाओं की बाढ़ सी आ गयी। इनमें बालकृष्ण भटटकी प्रदीप’, प्रताप नारायन मिश्र की ब्राह्मण’, मदन मोहन मालवीय की हिन्दोस्थान’, ‘अभ्युदयमर्यादा, मेहता लज्जाराम शर्मा की सर्वहित वेंकटेश्वर समाचार, बालमुकुन्द गुप्त की अखबारे चुनार,हिन्दी बंगवासीभारत मित्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वती, प्रेमचंद की माधुरी’, ‘जागरणहंस, माखनलाल चतुर्वेदी की कर्मवीरतथा प्रतापऔर गणेश शंकर विद्यार्थीकी अभ्युदयएवं प्रतापप्रमुख पत्रिकाएँ हैं।

        राजा राममोहन राय ने सन् 1827 में अपने पत्रों के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा कि- ‘‘मेरा सिर्फ यही उद्देश्य है कि मैं जनता के सामने ऐसे बौद्धिक निबन्ध प्रस्तुत करूँ जो उनके अनुभवों को बढ़ाए और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हो। मैं अपने शक्तिशाली शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूँ ताकि शासन जनता को अधिक से अधिक सुविधा देने का अवसर पा सके और जनता उन उपायों से परिचित हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके।’’ कहना न होगा कि राजा राममोहन राय की उक्त टिप्पणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी लिखते समय रही होगी। बाद में हिन्दी पत्रिकाओं के स्वर अवश्य बदले जब उन्हें अंग्रेजों की अनीति, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध लिखना पड़ा। इस क्रम में हिकी का उल्लेख करना समीचीन है जिसने अंग्रेज वायसराय के अत्याचारों व अनाचारों का विरोध करने के लिए अखबार निकाला और परिणामस्वरूप उसे पहले कारावासित किया गया फिर उसे निर्वासन की सजा सुनायी गयी। अब तक हिन्दी समाचार पत्र व पत्रिकाओं का यह उद्देश्य गति पकड़ चुका था कि हमें सच्चाई को सामने लाकर अंग्रेजों के अत्याचारपूर्ण शासन का विरोघ करना है।

       स्वातंत्र्योत्तर भारत में पत्र एवं पत्रिकाओं ने विषयान्तर किया जिसका बहुत कुछ श्रेय सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सायन अज्ञेयको जाता है। इन्होंने प्रतीक’, ‘नया प्रतीकओर दिनमानजैसे उच्च स्तरीय प़त्र निकाले। वे शब्दके प्रति प्रारम्भ से ही सचेत थे इसीलिए प्रतीकमें काव्य-भाषा और साहित्यिक-भाषा पर संपादकीय, लेख व परिचर्चा प्रकाशित होती थी। दिनमानके माध्यम से उन्होंने राजनैतिक समीक्षा और समाचार विवेचन की शैली हिन्दी में विकसित की। उन्होंने नव भारत टाइम्स’ (हिन्दी) के साहित्यिक और सांस्कृतिक परिशिष्ट को नई उचाईयाँ प्रदान की।

      धर्मवीर भारती ने धर्मयुगपत्रिका में सर्वसमावेषी कल्पना को साकार किया। फलस्वरूप इसमें राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक सामग्री के साथ ही साथ खेल, महिला-जगत, बाल-जगत जैसे स्तम्भों का भी समावेश किया। भारती ने हिन्दी रंगमंच और लोक कथाओं का भी समादर किया। हिन्दी की नवीन विधाओं जैसे संस्मरण, रेखा-चित्र, डायरी, रिपोर्ताज और यात्रा-वृतान्त को भी अपनी पत्रिका में बराबर का स्थान दिया। इससे न केवल हिन्दी का बहुमुखी विकास हुआ अपितु समाज भी लाभन्वित हुआ। इसी प्रकार कादम्बिनी’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तानतथा हंसपत्रिकाओं ने भी स्तरीय रचनाएँ उपलब्ध कराकर समाज का भला किया। सरितामुक्तासामान्य हिन्दी पाठी पत्रिकाएँ मानी गईं। कभी सच्ची कहानियाँपाठक का भी एक वर्ग हुआ करता था। समाचार पत्र भी आते-जाते रहे। नवजीवनजैसा समाचार-पत्र अब इतिहास बन चुका है। अमृत प्रभातलोगों की स्मृति में है। वर्तमान में हिन्दी भास्कर, दैनिक जागरण, आज, नवभारत टाईम्स, सहारा आदि हिन्दी की सेवा में लगे हुए हैं।

     पत्र-पत्रिकाएँ समाज पर अपना प्रभाव अवश्य छोड़ती हैं। इस अकाट्य सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता। महाकवि वोल्टायर और रूसो की जो भूमिका फ्रांस की क्रान्ति में थी उसका प्रामाणिक दस्तावेज उस क्रान्ति का इतिहास है। भारत में भी सत्तावनी क्रांति के अनेक पत्र प्रतिबंधित हुए और प्रकाशकों पर देश-द्रोह का मुकदमा चला। मैथिलीशरण गुप्त की भारत-भारतीतथा प्रेमचंद के सोज़े वतनकी प्रतियाँ जब्त हुईं और पुस्तकों पर बैन लगा। साहित्य का यही दुर्दमनीय प्रभाव है जो दिखता नहीं पर मनुष्य की धमनियों में प्रवाहित रक्त पर सीधा असर करता है। यदि साहित्य की आप्यायिनी शक्ति इतनी प्रबल है तो हमारा भी कर्तव्य बनता है कि हम साहित्य को समर्थ बनाएँ।

पत्र व पत्रिकाओं की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहाँ अभिव्यक्ति-स्वात़ंत्र्य नहीं है। यह अधिकार देशवासियों को संविधान प्रदत्त तो है परन्तु हकीकत क्या है। पत्रकार या रचनाकर को अपने पत्र के प्रकाशक व संपादक के पद चिन्हों पर चलना पड़ता है। शासन की नजरे इनायत न हो जाए, वरना कुछ भी हो सकता है। पर यहाँ यह स्वातंत्र्य नेताओं को मयस्सर है वे कुछ भी कहकर पाक-साफ रह सकते हैं। हम अभी इन्दिरा गाँधी प्रवर्तित आपातकाल को भूले नहीं हैं। उस समय पत्रकारों पर कितने बंधन थे। एक-दो पत्र जो सच्चाई बयाँ करने की जुर्रत कर रहे थे उनकी आर्थिक सहायता ही बन्द कर दी गयी। इस सत्य के प्रामाणिक दस्तावेज राजकीय अभिलेखागार में संरक्षित हैं। तात्पर्य यह कि मंसूर को तो फांसी मिलनी ही है, परिस्थिति चाहे जो हो। इसी वर्ष सन् 2014 में प्रकाशित कवि बृजेश नीरज के कविता-संग्रह कोहरा सूरज धूपकी शब्दशीर्षक कविता में रचनाकार के इस दर्द को बखूबी उकेरा गया है। यथा-

लेकिन शब्द हैं कि बोलते नहीं

उन्हें इंतजार है कवि का

उठाए कलम लिख दे उन्हें

फटे कागज के टुकड़े पर

पर वह कवि मजबूर है

काट दिए गए हैं उसके हाथ

शाहजहाँ द्वारा

        पत्र-पत्रिकाओं के पथ-च्युत होने का केवल यही कारण नहीं है कि अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता महज कागजी है। इसका एक कारण प्रकाशन पर पूँजीवादी नियंत्रण भी है। अब पत्रकारिता सेवा या मिशन नहीं, वह अब व्यवसाय या प्रोफेशन है। खबरों पर बाजारवाद हावी है। अब स्थिति यह है कि समाचार भले छूट जाए पर विज्ञापन का प्रकाशन नहीं छूटना चाहिए। विज्ञापन आय का मुख्य स्रोत बन चुका है। पत्र-पत्रिकाओं का जो प्रभाव कम हुआ है उसके पीछे व्यवसायिकता ही मुख्य कारण है। सेवा और टकसाल का रास्ता एक ही ओर नहीं जा सकता।

      इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं की संख्या और उनकी गुणवत्ता में बड़ा परिवर्तन आया है। आज उनकी साज-सज्जा पहले से कई गुनी अच्छी है। परन्तु यथार्थ और कटु यथार्थ के नाम पर आज जो अश्लीलता साहित्य में आयी है, वह हमें स्तब्ध करती है। सामाजिक विकृति, कुत्सा, बलात्कार, हत्या और सेक्स का बड़ा ही वीभत्स और जुगुप्सित वर्णन आज के साहित्य में मिलता है जिसे अपरिपक्व पाठक चटकारे लेकर पढ़ता है। परन्तु साहित्य चटकारे लेकर पढ़ने वाली वस्तु नहीं है। यह भाव औेर रस में डुबो देना वाला सागर है। अक्सर हम फिल्मकारों के मुख से सुनते हैं कि जनता जो पसन्द करती है हम वही उन्हें परोसते हैं। परन्तु यह तो नैतिकता नहीं है। इसका नाम सामाजिक प्रतिबद्धता नहीं है। यदि हम समाज में हैं तो हमारा दायित्व है कि हम समाज को स्वच्छ रखें। बच्चा यदि किसी मीठे विष को पीने की जिद करे तो क्या उसे विष मुहैया करा देना चाहिए। अब तो प्रकाशित साहित्य में गालियों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। पहले कला जीवन के लिए या कला, कला के लिए की बहस होती थी पर अब यह भी बहस होनी चाहिए कि क्या कला अश्लीलता के लिए भी है। यदि समाज का कोई वर्ग ऐसे साहित्य का सृजन कर रहा है अथवा ऐसे साहित्य का प़क्षधर है तो भी इसको प्रोत्साहन नहीं मिलना चाहिए चाहे भले ही समाज में वह यथार्थ रूप से घटित हो रहा हो। आज से वर्षों पूर्व एक ललकार मैथिलीशरण गुप्त ने भरी थी -

हो  रहा  जो  हो रहा  सो हो रहा

यदि वही हमने किया तो क्या किया

किन्तु करना चाहिए कब क्या कहाँ?

व्यक्त करती है कला ही वह यहाँ।

 

        साहित्य सृजन भी एक कला है। कला में सौन्दर्य-बोध होता है। साहित्य में सौन्दर्य अपेक्षित है। अश्लीलता नहीं। परन्तु दुर्भाग्य से आज की पत्र-पत्रिकाएँ भदेष होती जा रही हैं। हमें साहित्य की रचना करने से पूर्व समाज की ओर देखना है उसके भले के बारे में सोचना है। तुलसीदास  ने मानस में रचना-धर्म को बड़े स्पष्ट और कलात्मक ढंग से समझाया है-

कीरति भनिति भूति भलि सोई।

सुरसरि सम सब कर हित होई।

 

     मलिक मुहम्म्द जायसी ने पद्यावतमें एक स्थान पर कहा है- कवि के बोल खरग हिरवानी।पर यह उस समय की बात थी, जब कलम की ताकत से बड़ी-बड़ी सियासतें काँपती थीं। गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबूराव पराड़कर, बी जी हार्निमन, ब्रेलवो, सैय्यद अब्दुल्ल्ला और एस सदानन्द जैसे पत्रकार ओैर अज्ञेय तथा भारती जैसे कलमकार अब कहाँ हैं। आज की पत्रकारिता की एक उद्भावना पेज थ्रीका प्रादुर्भाव है। इसमें समाज के तथाकथित अभिजात्य वर्ग की रंगीनियों के किस्से छपते हैं। यह पीत-पत्रकारिता का युग है। आज का समाज भी शायद सनसनी ही पसन्द करता है। परन्तु पत्रकार व साहित्यकार को जगना होगा। हमें सृजन को कला मानकर उसे गढ़ना होगा। रचनाओं को संस्कार देना होगा। पत्र-पत्रिकाओं से अलग जो स्वतंत्र लेखन व प्रकाशन हो रहा है उसमें अभी भी नैतिक मूल्यों को संजोया जा रहा है, उसका कारण केवल यह है कि यह रचनाएँ व्यवसायिक नहीं है। इन पर किसी पत्र की अपनी नीति हावी नहीं है। इन पर संपादक का अंकुश नहीं है और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर कुछ भी लिखकर सस्ते पाठकों को रिझाना इनका उद्देश्य नहीं है। उदाहरणस्वरूप अभी हाल में ही मुझे दो काव्य-संकलन पढ़ने को मिले। एक बृजेश नीरज का कोहरा सूरज धूपऔर दूसरा कुंती मुकर्जी कृत बंजारन। इन्हें पढ़कर दिल को सुकून मिलता है। कवि का आदर्श अभी जीवित है। कविता के प्राण अभी बचे हैं लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है। मुझे विनय सिंह की कविता याद आती है जो रचना-धर्म को बड़े सलीके से रूपायित करती है। आप भी मुलाहिजा फरमाएँ -

तुमने  कलम  उठायी  है तो  वर्तमान लिखना

हो  सके  तो  राष्ट्र  का  कीर्तिमान  लिखना।

चापलूस  तो  लिख  चुके हैं चालीसा  बहुत

हो  सके तो  तुम हृदय का तापमान लिखना।

महलों में गिरती है गरिमा जो गाँव की

सहमी सी सड़कों पर तुम स्वाभिमान लिखना।

और अब मैं ज्यादा क्या कहूँ आपसे

अपनी सभ्यता और संस्कृति को प्रणाम लिखना।

 

ई एस-1/436ए सीतापुर रोड योजना कालोनी

अलीगंज सेक्टर-ए, लखनऊ

मो0 9795518586

 

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