Wednesday, 22 October 2025

परम्परा और आधुनिकता के द्वन्द्व से उत्पन्न गीत

     नवगीतकार गणेश गम्भीर ने सोलहों आने सच कहा है कि ‘‘हिन्दी कविता आलोचना में नवगीतकारों को वही स्थान और मान्यता दी जाती है, जो पाकिस्तान में मुहाजिरों और बलूचों को प्राप्त है।’’ हम पाकिस्तान नहीं जाएँ, प्रत्युत अपने मुल्क की जातीय संस्कृति के आधार पर कहें तो कहना होगा कि हिन्दी साहित्य में सम्पूर्ण गीत को वही जगह प्राप्त है, जो वर्णाश्रित धर्म में अन्त्यजों को दी जाती रही है। जिस प्रकार वर्णाश्रित धर्म में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अलावा हर प्रकार के मनुष्यों (अन्त्यज और स्त्रियों) को तमाम सामाजिक और धार्मिक अधिकारों से वंचित करके मनुष्य मानने से भी इंकार कर दिया गया है, उसी प्रकार समस्त छान्दस कविताओं- गीत, ग़ज़ल, दोहे इत्यादि को गम्भीर साहित्य का दर्जा नहीं दिया गया है और केवल गद्य कविता (लय-छन्दहीन कविता) को ही कविता होने का मान दिया गया है। इसके बावजूद कई आत्मविमुग्ध नवगीतकार इस मुगालते में हैं कि नवगीत आजकल काव्य-विमर्श के केन्द्र में है। हालाँकि यह वास्तविकता को सिर के बल खड़ा करने के नामाकूल प्रयत्न से अधिक कुछ नहीं है। नवगीतकार भले ही इस प्रकार के काल्पनिक विभ्रम को ही सच मानकर आत्मतुष्ट हो जाएँ और आलोचकीय उपेक्षा का शिकार होकर सम्पूर्ण साहित्य चिन्तन से व्यावहारिक और सैद्धान्तिक धरातल पर खारिज होकर भीतर ही भीतर खीझते रहें, लेकिन उनके प्रति आलोचकीय उपेक्षा की जड़ता खत्म होने का कोई लक्षण दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता।

यह हिन्दी आलोचना का दोगलापन नही तो और क्या है कि एक ओर तो आलोचक यह घोषित करने में तनिक भी देर नहीं लगाते कि हिन्दी कविता का इतिहास गीत से ही शुरू होता है और सामाजिक परिवर्तन में गीत क्रान्तिकारी भूमिका निभाते हैं, किन्तु जब वही लोग कविता पर संजीदा विचार-विमर्श करने लगते हैं, तो उन्हें गीत या गीतकारों की याद तक नहीं आती। गरज कि समाज में अब क्रान्तिकारी परिवर्तन की आवश्यकता नहीं रह गयी है, इसलिए गीत को गम्भीर साहित्य के दायरे से दरकिनार कर देना ही लाजमी है। वस्तुतः गीत को कविता न मानने की जिद की शुरुआत आधुनिकतावादी अज्ञेय द्वारा प्रयोगवाद और नयी कविता के उदय के पश्चात की गयी थी। प्रयोगवाद और नयी कविता के प्रादुर्भाव के पूर्व, गीत को कविता का ही एक अंग माना जाता था। कालांतर में तकरीबन समस्त हिन्दी आलोचना भी अज्ञेय के सुर में सुर मिलाकर कहने लगी कि आधुनिक जीवन की सम्पूर्ण जटिलता को, समग्रता में गीत के जरिये व्यक्त करना अब सम्भव नहीं रह गया है। उसे साहित्य की अन्य विधाओं का पुनर्नवा होना तो मंजूर है, किन्तु गीत के पुनर्नवा होते ही उसकी भाषा, संवेदना और शिल्प में गुणात्मक और समयसापेक्ष परिवर्तन देखते ही आँखों में मिर्च की बुकनी पड़ जाती है। सच बात तो यह है कि आज की हिन्दी आलोचना उस इतिहासशून्य, आधुनिकतावादी, अस्तित्ववादी निरीह मानव की तरह है, जिसके बारे में जार्ज लुकाच लिखते हैं कि वह उस खण्डित, एकाकी, निरीह मनुष्यों (लघु मानवों) का जीवन दर्शन है, जिसका कोई अतीत, वर्तमान और भविष्य नहीं है। इसलिए आज की हिन्दी आलोचना भी सिर्फ अबूझ और अमूर्त गद्य कविता को ही कविता मानने लगी है, जिससे भारत का बहुसंख्यक जन-साधारण विदेशी भाषा जैसे ही अपरिचित है। नतीजतन हम कह सकते हैं कि आज की गद्य कविता का कोई परम्परागत इतिहास नहीं है, क्योंकि परम्परागत विरासत तो छन्दोबद्ध कविता की है, जिसे गम्भीर कविता के दायरे से एक हद तक बहिष्कृत कर दिया गया है।

गीत, कविता का आद्य रूप है जिसे थियोडोर अडोर्नो ने मानव सभ्यता की धूप-घड़ी कहा है। दरअसल कविता के इतिहास का आरम्भिक सिरा गीत से ही जुड़ा हुआ है। गीत के विशिष्ट रूपाकार में असीम व्यंजना होती है, जिससे आलोचक सही ताल-मेल बिठाने में असमर्थ दीखते हैं और इसी वजह से गीत को गम्भीर कविता मानने से ही इन्कार कर देते हैं। जबकि इतिहास गवाह है कि गीत के रूपाकार, अनुभूति की संरचना और विषय-वस्तु में समयसापेक्ष, युगसापेक्ष और समाजसापेक्ष ढंग से बदलाव आते रहे हैं, तथा गीत में भी अपने समय के सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति होती रही है, लेकिन गीत में सामाजिक अनुभव भी वैयक्तिक अनुभव के साँचे में ढलकर व्यक्त होता है। हिन्दी साहित्य के विकास के कई पड़ावों भक्तिकाल, छायावाद और उत्तर छायावाद काल की कविताओं का मुख्य स्वर गीत ही रहा है।

तमाम आलोचकीय उपेक्षा और अवमानना का संत्रास झेलते हुए और बदलती सामाजिक चेतना के अनुरूप ही अपनी प्रभावी और वैचारिक अन्तर्वस्तु को परिवर्तित करते हुए गीत आज के जटिल सामाजिक यथार्थ को सच्ची अभिव्यक्ति देने की दिशा में निरन्तर अग्रसर है। व्यापक जन-मानस से लगभग विस्थापित हो चुकी आज की गद्य कविता भले ही कुछ आधुनिकतावादी आलोचकों (कुछ मार्क्सवादी आलोचकों की भी) की निगाह में उत्कृष्ट कविता का दर्जा प्राप्त कर ले, परन्तु व्यापक जन-जीवन से सीधा संवाद और सम्पर्क कायम करने में छान्दस कविताएँ - गीत, ग़ज़ल, दोहे इत्यादि ही सर्वाधिक कारगर और पुरअसर काव्य रूप हैं। व्यापक जन-जीवन से समकालीन गद्य कविता के विस्थापन को ढँकने के लिए, आलोचक आजकल उसे भविष्य के पाठकों के लिए लिखी गयी कविता घोषित कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में वे इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि कला-साहित्य के सृजन की बीज वस्तुएँ सामाजिक जीवन में ही मौजूद होती हैं, जिनका उपयोग सर्जक अपनी रचना में कच्चे माल की तरह करता है, तथा अपने सृजन को पुनः उसे यानी समाज को ही सौंप देता है। यह सन्देह रहित है कि कोई भी कला अपने समय की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का परिस्कार करते हुए अमानवीय समाज को बदलकर, अधिक मानवीय समाज बनाने की दिशा में सक्रिय होने के निमित्त जन-सामान्य को प्रेरित करती है। हर श्रेष्ठ रचना के पाठक भविष्य के पाठक भी होते हैं, लेकिन पहले पाठक तो उस समाज के मनुष्य ही होते हैं, जिनके अनुभव साहित्य में व्यक्त होते हैं। ऐसा कदापि नहीं होता कि कोई साहित्य भविष्य के पाठकों के लिए तो प्रासंगिक और उपयोगी तो हो, किन्तु अपने समय के पाठकों के लिए अप्रासंगिक और निरर्थक हो। पाँच-छः शताब्दी के बाद भी भक्तिकाल की कविताओं के पाठक आज भी हैं, परन्तु सौ - दो सौ साल बाद भी अरुण कमल, आलोकधन्वा, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल आदि आज के गद्य कवियों की कविताओं के पाठक रहेंगे ही, इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती, फिर उसे केवल भविष्य के पाठकों के लिए रचित रचना मानना कहाँ तक उचित है?

यह बात दीगर है कि सहजता, स्वाभाविकता, आत्मपरकता और रागात्मकता की अनिवार्यता को अभ्यान्तरित कर लेने के बावजूद, गीत में व्यापक जन-जीवन की सच्ची संवेदना, जीवन की धड़कन और सजीव अनुभूतियों की संवेदनशील अभिव्यक्ति हुई है। गीत कभी भी केवल पठ्य कविता नहीं रहा है। श्रव्यता इसकी अनिवार्य विशेषता में शुमार रही है। इसलिए आज का गीत सिर्फ नितान्त निजी आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति भर नहीं, प्रत्युत् समाज के सामूहिक संवेग की सच्ची अभिव्यक्ति है और व्यापक जन साधारण से सीधा संवाद एवं सम्पर्क कायम करने में सर्वथा सक्षम भी। ताज्जुब है कि सामाजिक परिवर्तन में कविता की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करने वाले आलोचक भी, उन्हीं पहेलीनुमा अमूर्त गद्य कविताओं को ही श्रेष्ठ कविता मानते हैं, जो व्यापक जन-साधारण द्वारा अपनी संवेदना के व्यापक परिसर से विस्थापित कर दी गई हैं। क्या सामाजिक परिवर्तन चन्द बुद्धिजीवियों की बदौलत आता है, या व्यापक जन-चेतना की क्रान्तिकारी सक्रियता से ? आज का गीत अपनी वैयक्तिक सुख-दुख की अभिव्यक्ति की जगह सामाजिक सुख-दुख की अभिव्यक्ति को अपना अभीष्ट मानता है और सामाजिक समस्याओं से सीधा साक्षात्कार करता है। यह अलग बात है कि आदिम वर्ग विहीन समाज में सामूहिक श्रम प्रक्रिया के दौरान, श्रम परिहार के लिए सामूहिक संवेग को अभिव्यक्त करने हेतु समूह गीतों के रूप में उत्पन्न गीत को सदियों तक नितान्त निजी आत्माभिव्यक्ति का माध्यम माना जाता रहा है और एक सीमा तक दकियानूस और कूपमंडूक लोगों द्वारा आज भी माना जाता है।

मौजूदा दौर की हिन्दी आलोचना की घनघोर उपेक्षा और अवमानना का तीखा दंश सहते हुए भी हमारे गीतकार अपने रचनाकर्म से पलायन न करके लगातार गीत का सृजन ही नहीं कर रहे हैं, अपितु वर्तमान सामाजिक चेतना के उन्नयन में सकारात्मक भूमिका भी अदा कर रहे हैं। समकालीन गीत-धारा को गतिशील रखने में नई पीढ़ी के गीतकारों का योगदान सर्वोपरि होगा, क्योंकि उन्हीं के कन्धों पर अब समकालीन गीत का भविष्य निर्भर रहेगा।

कल्पना मनोरमा समकालीन गीत का एक नितान्त नया हस्ताक्षर है। इनके गीतों में पारम्परिक गीतों के अवशेष तो हैं ही, नई चेतना से जुड़ने की तीव्र छटपटाहट भी है। इसलिए इनके गीतों में जहाँ वैयक्तिक और नितान्त निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है, वहीं सामाजिक समस्याओं और उनकी विसंगतियों को भी पकड़ने की चेष्टा स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। जिसमें एक सीमा तक उन्हें सफलता भी मिली है। इस प्रकार उनमें परम्परा और आधुनिकता का द्वन्द्व दिखाई देता है, तथा इस द्वन्द्वात्मकता के कारण उनकी सामाजिक चेतना भी वैयक्तिक और आत्मपरक भावना के साँचे में ढलकर व्यक्त होती है- ‘‘जीवन की आपाधापी में/आओ चलो स्वयं को जानें/बाँधी मन की पोली गठरी/तो बिखरेगा दाना- दाना/और अगर ली बाँध कड़क तो/हो जाएगा वह बेगाना/फेंको छतरी चिन्ताओं की/आओ समरसता को तानें।’’

सावन के घनयद्यपि कल्पना मनोरमा की नितान्त निजी आत्मानुभूतियों को व्यक्त करने वाला गीत है, किन्तु इसकी अभिव्यक्ति के लिए चुने गये बिम्बों में, घर-परिवार की कोमल संवेदनाओं के साथ-साथ सामाजिक समस्याएँ भी छलक-छलक रही हैं। कालिदास के मेघदूत की भाँति, कल्पना के सावन के घनभी एक मेघदूत की ही भूमिका में हैं। कालिदास के मेघदूत की तरह ही सावन के घनसे अपने सँदेशे को गाँव-घर की आत्मीय अनुभूतियों से आत्मसात करके अपने प्रिय तक ले जाने का आग्रह किया है। ‘‘जाओ सावन के घन कारे/जाकर बरसो उनके द्वारे/सँग ले जाना माँ की ममता/और पिता जी की शाबाशी/मत कहना कुछ मेरे मन की/मैं तो हूँ बस उनकी दासी/रूखा सूखा हाथ न लेना/मधुरिम दिन दे आना सारे।’’ इस गीत में संवेदना वाचाल होकर व्यक्त नहीं हुई है, बल्कि अपनी विरह-वेदना को बहुत ही सावधानी से छिपा लिया गया है और यही इस साधारण से दिखने वाले संवेदनशील गीत की असाधारण कलात्मकता है। पत्नी को अर्धांगिनी या सहधर्मिणी न  मानकर, अपने पति या प्रिय के आँगन की दासी मानना, कल्पना मनोरमा की परम्परा पोषित मानसिकता की उपज लगता है, आज के स्त्री विमर्श के जमाने की स्वतंत्र स्त्री की मानसिकता हर्गिज नहीं।

हिन्दी की अधिकांश गीत कवयित्रियाँ, वैयक्तिक सुख-दुख, विरह-मिलन की वेदना और मिलनोच्छ्वास की भावना को ही अपने गीतों में अभिव्यक्त करती हैं। इनमें से कुछ ही नवगीत कवयित्रियाँ हैं, जिनकी रचनाओं में सामाजिक समस्याओं से साक्षात्कार की चिन्ता व्यक्त हुई है। कल्पना मनोरमा के गीतों में सामाजिक चेतना वैयक्तिक चेतना के साँचे में ढलकर व्यक्त हुई है। वे सूरजमुखी बनकर अपने मन की व्यथा-कथा कहने की आकांक्षा तो रखती हैं, मगर सूरज अपने गन्तव्य की ओर बढ़ता ही जाता है। वह तनिक देर के लिए भी एक जगह पर रुकता नहीं कि वह (नायिका) उससे अपने मन की बात कह सके और सूरज है कि उसे सान्त्वना तक नहीं दे पाता। यह गीत ऊपर से देखने में जितना सरल लगता है, उतना सरल है नहीं। इसमें मध्यम वर्गीय स्त्री की विवश मनोदशा को सार्थक अभिव्यक्ति मिली है, जो अपना पूरा जीवन एक मृगतृष्णा के पीछे दौड़ते हुए गुजार देती है- ‘‘कब तक सूरजमुखी बनें हम/तनिक देर जो रुकता सूरज/तो हम कुछ मन की कह लेते/तकली बनी जिन्दगी ऐसी/कात रही वह पोनी पोनी/कट जाता दिन राम-भरोसे/रात सदा खोनी ही खोनी/इस आपाधापी में कोई /दे जाता दो पल का धीरज/तो हम कुछ मन की कह लेते।’’

ऐतिहासिक सत्य है कि औद्योगिक पूँजी और नागर-सभ्यता के विकास के लिए, जंगलों की बेतहाशा कटाई की गई थी और आज वित्तीय या आवारा पूँजी के विकास के लिए गाँवों के शहरीकरण का ढोंग किया जा रहा है, उन्हें स्मार्ट बनाया जा रहा है। गाँव की धूल भरी कच्ची सड़कें और पगडंडियाँ अब पक्की सड़कों में तब्दील होती जा रही हैं। यूँ तो यह गाँवों के आधुनिक विकास का सूचक है, परन्तु नागर-सभ्यता के स्पर्श से गाँवों की अस्मिता, सहजता, स्वाभाविकता, एकता, भाईचारा, आत्मीय रिश्ते-नातों का अपनत्व तथा समाज के काव्यात्मक सम्बन्धों की मिठास तिरोहित हो गई है। बाँध-बँधार, बाग-बगीचे, खेती-बाड़ी और उत्पादन सम्बन्धों की स्थिति में भी अमानवीय और संवेदनहीन बदलाव आ गया है। ग्राम्य-समाज की देशज संस्कृति पश्चिम की औद्योगिक सभ्यता की भयानक मार से बुरी तरह क्षत-विक्षत और लहूलुहान सी हो गई है और महानगरीय सभ्यता की चकाचैंध में अपनी जातीय अस्मिता खोती जा रही है। कल्पना मनोरमा अपने गीत में इस सार्थक बदलाव को बनी-ठनी सी सड़क फिरंगनके रूपकीय प्रतीक से अभिव्यक्त करती हैं। स्मरण रहे कि फिरंगियों ने सदियों तक भारत को गुलामी की जंजीरों में जकड़े रखा था। आज की बनी-ठनी फिरंगन यानी साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी भी भारतीय जनता को आर्थिक गुलामी के चंगुल में फँसा लेने को उतावली है जो अभी बेहद खूबसूरत, आकर्षक और हितचिन्तक लग रही है। ‘‘बनी-ठनी सी सड़क फिरंगन आ पहुँची है गाँव तक ....... पगडंडी सूनी अकुलाई/लेकिन कुछ भी सोच न पाई/दफन हो गये खेत-बाग सब/आँखों में भी धूल समाई/लेकर कँकरीली छाती वह/जबरन पहुँची काँव तक।’’

कोई भी रचनाकार अपने सामाजिक परिवेश से निरपेक्ष नहीं रह सकता। वह तमाम सामाजिक, राजनीतिक और प्राकृतिक घटनाओं एवं अपने आसपास के परिवेश से अनिवार्य रूप से प्रभावित होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के तकरीबन सत्तर बरस गुजर जाने के बावजूद, भारतीय जनता आज एक अप्रत्यक्ष आर्थिक गुलामी के शिकंजे में पड़ी छटपटा रही है। राजसत्ता, आम चुनाव के समय गद्दीनसीन होने के लिए तरह-तरह के झूठे प्रलोभन परोसती है। कभी गरीबी-उन्मूलन करने का सब्ज बाग दिखाती है, तो कभी अच्छे दिन लाने का झाँसा देती है, तो कभी समाजवाद लाने का मिथ्या आश्वासन देती है, लेकिन सामाजिक स्थितियों में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आता, क्योंकि राजसत्ता द्वारा परोसे ये आश्वासन झूठ की बैसाखी पर टिके होते हैं, भीतर से अत्यन्त ही खोखले और दिखावटी। यथार्थ तो यह है कि व्यापक जन-सामान्य के आर्थिक शोषण, दमन और उत्पीड़न का जबड़ा सुरसा के मुख के मानिन्द लगातार फैलता जाता है एवं व्यापक जनता कमरतोड़ महँगाई की भयंकर मार से घुट-घुट कर जीने के लिए मजबूर है। वह अपने जीवन-यापन की बुनियादी जरूरतों में जितनी भी कटौती कर ले, उसके चैन से जीवन जीने की सारी इच्छाएँ महँगाई की मार से धूल-धूसरित हो जाती हैं। इस सामाजिक विडम्बना की बहुत ही स्वाभाविक और मार्मिक अभिव्यक्ति कल्पना मनोरमा के इस गीत में हुई है- ‘‘बुधिया हर दिन जोड़ घटाती रुपिया आने को/महँगाई का भूत खड़ा है उसे डराने को।’’

यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारतीय मध्यम वर्गीय और निम्न वर्गीय जनता, आज की उपभोक्तावादी संस्कृति के दबाव तले अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में सुधार लाने के लाख प्रयत्न करने के उपरान्त भी, अमानवीय बदहाली का संत्रास झेलने के लिए विवश है, क्योंकि वह आर्थिक स्थिति सुधारने के वास्ते जो प्रयत्न करती है, वह आसमान छूती महँगाई की भेंट चढ़ जाता है। इस अमानुषिक-सामाजिक स्थिति की, कल्पना मनोरमा अपने गीत में अत्यन्त मार्मिक अभिव्यक्ति करती हैं- ‘‘रुपिया एक दक्षिणा ग्यारह/कैसे हों मन के पौ बारह/आसमान छूती महँगाई/पूरी पड़ती नहीं कमाई/हर इच्छा को करके स्वाहा/फिर भी बात समझ न पाई/मंजिल एक रास्ते ग्यारह/कैसे हों मन के पौ बारह।’’ आम मुहावरा रोटी, कपड़ा और मकान है, किन्तु कल्पना मकान की जगह ठिकाना का सांकेतिक प्रयोग करती हैं। यह नया प्रयोग अकारथ नहीं है। बल्कि इसमें यह बताने का उपक्रम किया गया है कि आज के कठिन दौर में मकान हासिल कर पाना तो लोहे के चने चबाने से भी ज्यादा मुश्किल कर्म है ही,  सिर छिपाने के लिए एक ठिकाना मिलना भी दूभर है।

जगजाहिर है कि संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली में, जनता द्वारा चुनी गई सभी सरकारें हर वर्ष देश को सुचारु रूप से चलाने के लिए, एक बजट पेश करती हैं जिसमें जनहित के ढेरों वायदे होते हैं, लेकिन वास्तविकता इतर होती है। राजसत्ता व्यापक जनता का अप्रत्यक्ष किन्तु अमानवीय शोषण करके पूँजीपतियों की ही तिजोरी भरने में सहयोग करती है और साधारण जनता मुफ़लिसी एवं बदहाली की भयंकर मार झेलने की खातिर मजबूर रहती है। हालाँकि आम बजट में जनहित के सब्जबाग देखकर सामान्य जन-मानस क्षण भर को खुशी से बाग-बाग हो जाता है। कल्पना मनोरमा का यह गीत इस राजनीतिक छद्म का पर्दाफाश बखूबी करता है- ‘‘नये बजट पर नई कठिनता/लेकर किलक रहा/माटी का चन्दन भी महँगा/बिटिया मचले माँगे लहँगा/रेशम की तो बात छोड़ दो/मारकीन बिकती ज्यों गहना/पटना-दिल्ली एक हाथ में/देखो फुदक रहा।’’

इस इक्कीसवीं सदी में भी कुछ गीतकार इस भ्रान्ति के शिकार हैं कि ‘‘गीत जब किसी विचारधारा से सम्बद्ध हो जाता है तो वह गीत न रहकर कुछ और हो जाता है क्योंकि इस प्रक्रिया में रचनाकार की अनुभूति, अनुभूति न रहकर एक विचारधारा का विज्ञापन बन जाती है, जो गीत की आत्मा की हत्या कर देती है।’’ (समकालीन गीति-काव्यः संवेदना और शिल्प, पृ 114) गोया कि अनुभूति का ताल्लुक किसी विचारधारा से नहीं होता है तथा हर घटना की अनुभूति हर मनुष्य की एक जैसी होती है। जबकि वास्तविकता है कि हर प्रकार की घटना की प्रतिक्रिया हर मनुष्य पर अलग-अलग होती है और उसे ग्रहण भी अलहदा प्रकार से ही करता है तथा अनुभूति का चरित्र, ग्रहणकर्ता के इन्द्रियबोध, भावबोध एवं विचारधारा के साथ-साथ जीवन-दृष्टि, वर्ग-दृष्टि और विश्व-दृष्टि पर निर्भर होता है। साथ ही यह भी एक सर्वमान्य हकीकत है कि हर प्रकार के सृजन कर्म में सृजनकर्ता की विचारधारा हर हाल में सक्रिय होती है। वह विचारधारा चाहे भाववादी हो या  भौतिकवादी, व्यक्तिवादी हो या समाजवादी, प्रतिक्रान्तिकारी हो या क्रान्तिकारी अथवा वामपंथी हो या दक्षिणपंथी कुछ भी हो सकती है, लेकिन उसकी मौजूदगी होती जरूर है। इस तर्क की तस्दीक के लिए हम कल्पना के एक आत्मपरक गीत के साथ अनुक्रिया कर सकते हैं- ‘‘माँ के बूढ़े से बक्से में/बचपन वाला प्यार मिला है/देखी मैंने एक पोटली/उसमें थी धुँधली सी गुड़िया/छोटा चकला बेलन चिमटा/खुशी भरी रक्खी थी पुड़िया/मेरी नटखट सी बातों से/पुलकित इक संसार मिला है।’’ एक स्त्री की बचपन की स्मृतियों को संवेदनात्मक स्तर पर ताजा कर देने वाला यह गीत, ऊपर से देखने पर नितान्त निजी आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति दृष्टिगत होता है, परन्तु इस गीत का मूल अर्थ वह है जो इसमें अव्यक्त रह गया है। इस गीत में परोक्ष रूप से यह भी बतलाने का उपक्रम किया गया है कि इस पुरुष सत्तात्मक समाज में माता-पिता भी पुत्र और पुत्रियों के लालन-पालन और खेल-कूद की सामग्री के चयन में भेदभाव बरतते हैं। पुत्रों के लिए जहाँ खेलने के लिए बन्दूक, पिस्तौल, जहाज, कार, क्रिकेट का बल्ला आदि मुहैया कराया जाता है, वहीं पुत्रियों के खेलने के लिए गुड़िया, चकला, बेलन, चिमटा आदि रसोई घर की सामग्री दी जाती है, साथ ही यह घुट्टी के साथ पिलाने का प्रयास किया जाता है कि उसे आजीवन रसोई घर की छोटी सी दुनिया में ही सिमट कर रहना है, हर हाल में पुरुष सत्ता के अधीन रहना है। इस गीत में अन्तर्निहित यह अव्यक्त किन्तु विशेष अर्थ ही, इस गीत का रचनात्मक अभीष्ट है और प्रतिरोध भी।

कामायनी एक पुनर्विचारमें मुक्तिबोध ने कहा है कि ‘‘कलाकृति स्वानुभूत जीवन की कल्पना द्वारा पुनर्रचना है। यथार्थवादी शिल्प के अन्तर्गत कलाकृति यथार्थ के अन्तर्नियमों के अनुसार यथार्थ के बिम्बों की क्रमिक रचना प्रस्तुत करती है। किन्तु भाववादी, रोमैंटिक शिल्प के अन्तर्गत कल्पना अधिक स्वतंत्र होकर जीवन की स्वानुभूत विशेषताओं को समष्टि चित्रों द्वारा, प्रतीक चित्रों द्वारा प्रस्तुत करती है।’’ (मुक्तिबोध रचनावली भाग चार पृ 95) कल्पना मनोरमा अपने उपर्युक्त गीत में स्वानुभूत जीवन यथार्थ को बिम्ब श्रंखला द्वारा प्रस्तुत करने के बजाय चकला, बेलन, चिमटा, गुड़िया आदि प्रतीक चित्रों के जरिये प्रस्तुत करती हैं, जिससे एक यथार्थवादी गीत भाववादी नवगीत की शक्ल में तब्दील हो जाता है और उसका प्रतिरोध उसमें उलझ कर मौन हो जाता है। रचना प्रक्रिया की इस बारीकी को कल्पना मनोरमा के साथ-साथ हर जागरूक गीतकार को शिद्दत के साथ आत्मसात करना चाहिए, क्योंकि प्रतिरोध और संघर्ष का साहित्य ही सच्चा साहित्य होता है,  इसलिए उसे मुखर होना चाहिए।

प्रेम, प्रकृति और सौन्दर्य, गीत रचना की सर्वाधिक उर्वर भूमि होते हैं। दुनिया की सभी भाषाओं और साहित्य में प्रेम, प्रकृति और सौन्दर्य को व्यक्त करने वाली रचनाओं का विपुल भण्डार उपलब्ध है। कोई भी संवेदनशील गीतकार प्रेम, प्रकृति और सौन्दर्य की अनुभूति और उद्भावना से अपनी आँखें नहीं चुरा सकता। कल्पना मनोरमा ने भी प्रेम, प्रकृति और सौन्दर्य को विषय बनाकर अनेक गीत लिखे हैं। उनके प्रेम, और प्रकृति गीतों की अनेक मनोरम छटाएँ हैं, उनमें अनेक छवियाँ हैं, उनमें अनगिनत बेल-बूटे कढ़े हैं, उनकी अनेक भंगिमाएँ हैं, एक विस्तृत संसार है उनका। कल्पना मनोरमा के प्रेमगीतों में केवल उनकी आतमानुभूति ही नहीं व्यक्त हुई है। इनमें वस्तु से चेतना की और व्यक्ति से समाज की द्वन्द्वात्मक एकता व्यक्त हुई है तथा प्रकृति गीतों में मनुष्य और प्रकृति की द्वन्द्वात्मक अन्तरंगता और एकता की अभिव्यक्ति हुई है, जिसमें उनकी सौन्दर्य-चेतना रचना की मूल्य-दृष्टि में विन्यस्त होकर व्यक्त हुई है। यथा- ‘‘याद सताये जब प्रियतम की/आस लगा लेना/महकेगी बगिया विरही/विश्वास जगा लेना’’ या ‘‘सूर्य ने सन्देश भेजा प्यार का/कृषक का मन हो गया कचनार सा’’ या ‘‘भोर चली जल भरने को/हाथों में ले मटके/ओ गौरैया जागो झटपट बोला कागा/आधा सोया जागा आँगन/सरपट भागा/बस्ती भर के डिब्बे खाली/हैं कतार में अटके।’’

कल्पना मनोरमा को अपनी माँ से अछीज प्यार है। यही कारण है कि उन्होंने अपना उपनाम मनोरमा रखा है, क्योंकि उनकी माँ का नाम मनोरमा है। अपनी माँ की स्मृति में उन्होंने कई संवेदनशील गीत लिखे हैं, जिसमें अपनी माँ के प्रति अकूत प्यार की अभिव्यक्ति तो हुई ही है, साथ ही माँ के कठिन संघर्षमय जीवन का कारुणिक चित्रण भी हुआ है, उस माँ का कारुणिक चित्रण, जो अपने घर-परिवार और छोटे से कुनबे की सुख-सुविधा के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन होम कर देती है, अपनी सुख-सुविधा की तनिक भी परवाह नहीं करती- ‘‘करे कितना जतन कोई/मगर माँ याद आती है/लुटाती प्यार का सागर/नहीं इक बूँद तक माँगे/नहीं माँ से जुदा कोई/जहाँ जिस छोर तक भागे/करे कितना जतन कोई/मगर माँ याद आती है’’ या ‘‘सावन चुपके-चुपके आना/माँ सोई मत उसे जगाना/मिहनत के/चौबारे को लीपा करती थी/माथे की रेखाओं से/ममता झरती थी/सोना-जगना उसका/कोई देख न पाया/सूखा दिया हमें/गीले को खुद अपनाया/मौन हो चुकीं सारी बातें/अब तुम भी कजरी मत गाना।’’

नवगीत के उदय के पश्चात, समकालीन गीत की संवेदना और विषय-वस्तु के धरातल पर सन्तोषजनक विस्तार और विकास हुआ है तथा भाषा, शिल्प और मुहावरे में भी गुणात्मक परिवर्तन आये हैं, जिससे गीत में आज समकालीन जीवन की अत्यन्त ही संश्लिष्ट अनुभूतियों को समग्रता में व्यक्त कर पाने की शक्ति का संचरण हो गया है। लोक-जीवन, लोक-भाषा तथा लोक-गीत की लय और धुनों के कलात्मक इस्तेमाल से, गीत की प्रभावी अन्तर्वस्तु अत्यधिक संवेदनशील, प्रभावशाली और लोकप्रिय हो गई है। कल्पना मनोरमा के जिन गीतों में जहाँ कहीं भी और जितनी मात्रा में लोक-लय की अनुगूँज समाविष्ट हुई है, वहाँ उसमें एक नयी चमक की सृष्टि हो गयी है। यहाँ ध्यातव्य है कि कल्पना के गीतों में लोक-लय का केवल संस्पर्श भर है। कल्पना को इस दिशा में भी ठोस कदमों से आगे बढ़ना चाहिए। बतौर बानगी- ‘‘बाँसुरी यदि हो सके/तो मत बजाना’’ या ‘‘चलना तो है/किन्तु आँख मत खोलो भाई’’ जैसे गीतों का अवलोकन किया जा सकता है। एक बात और गौरतलब है कि कल्पना मनोरमा प्रयोगशील नव्यता लाने के लिए या नये छन्द विन्यास की आड़ में, अपने गीतों की लय-संरचना और छन्द-संघटन के साथ अनावश्यक खिलबाड़ नहीं करतीं, गीत की संरचना में अनावश्यक तोड़-फोड़ नहीं करतीं। अपने गीतों में मिश्रित लय छन्दों के प्रयोग की जगह, एक गीत में एक ही लय-छन्द का उपयोग करती हैं, जिससे उनके गीतों की गेयता छिन्न-भिन्न नहीं होती और न उसमें ग़द्यात्मक अवरोध ही उत्पन्न होता है।

कब तक सूरजमुखी बनें हमकल्पना मनोरमा का पहला गीत-संग्रह है, इसलिए उनमें रूप और वस्तु की द्वन्द्वात्मक एकता की सर्वोत्तम तराश और निखार की खोज सर्वथा ज्यादती होगी। इन गीतों की अन्तर्यात्रा करके उनके गीतों की विकास-यात्रा को समझा जा सकता है। इसमें उनके आरम्भिक गीत भी शामिल हैं, जिनकी बनावट और बुनावट पारम्परिक गीत के नजदीक है। काव्य-भाषा में तत्सम शब्दों के प्रति मोह अनायास ही झलक जाता है, लेकिन गीत-रचना की अद्यतन भाषा, शिल्प, संवेदना और अनुभूति की संरचना से जुड़ने की उनमें तीव्र आकांक्षा है उनमें तथा तद्भव की ओर झुकाव भी। इस दिशा में ली गयी उनकी सकारात्मक पहलकदमी, इस बात का सबूत है कि निकट भविष्य में वह भाषा, शिल्प और अनुभूति की संरचना के अनगढ़ कच्चेपन पर काबू पाकर शीघ्र ही उत्कृष्ट नवगीत लिखने में सफल होंगी। उम्मीद है कि अपनी निश्छल अभिव्यक्ति की वजह से कल्पना मनोरमा के ये गीत अपने पाठकों की संवेदना के कोमल तन्तुओं को अवश्य ही झंकृत करने में कामयाब हो जाएँगे।

                             ***                        नचिकेता

मो.- 9835260441/ 9471050921 

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