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Friday, 1 April 2016

कमलेश्वर की कहानी- कितने पाकिस्तान

कितने पाकिस्तान

- कमलेश्वर

कितना लम्बा सफर है! और यह भी समझ नहीं आता कि यह पाकिस्तान बार-बार आड़े क्यों आता रहा है। सलीमा! मैंने कुछ बिगाड़ा तो नहीं तेरा...तब तूने क्यों अपने को बिगाड़ लिया? तू हँसती है...पर मैं जानता हूँ, तेरी इस हँसी में जहर बुझे तीर हैं। यह मेहंदी के फूल नहीं हैं सलीमा, जो सिर्फ हवा के साथ महकते हैं।
हवा! हँसी आती है इस हवा को सोचकर। तूने ही तो कहा था कि मुझे हवा लग गयी है। याद है उन दिनों की?
तुम्हें सब याद है। औरतें कुछ नहीं भूलतीं, सिर्फ जाहिर करती हैं कि भूल गयी हैं। वे ऐसा न करें तो जीना मुश्किल हो जाए। तुम्हें औरत या सलीमा कहते भी मुझे अटपटा लगता है। बन्नो कहने को दिल करता है। वही बन्नो जो मेहंदी के फूलों की खुशबू मिली रहती थी। जब मेरी नाक के पास मेहंदी के फूल लाकर तुम मुँह से उन्हें फूँका करती थीं कि महक उड़ने लगे और कहा करती थीं ''इनकी महक तभी उड़ती है जब हवा चलती है...''
सच पूछो तो मुझे वही हवा लग गयी। वही हवा, बन्नो! पर अब तुम्हें बन्नो कहते मन झिझकता है। पता नहीं खुद तुम्हें यह नाम बर्दाश्त होगा या नहीं और अब इस नाम में रखा भी क्या है।
मेरा मन हुआ था कि उस रात मैं सीढ़ियों से फिर ऊपर चढ़ जाऊँ और तुमसे कुछ पूछूँ, कुछ याद दिलाऊँ। पर ऐसा क्या था जो तुम्हें याद नहीं होगा!
ओफ! मालूम नहीं कितने पाकिस्तान बन गए एक पाकिस्तान बनने के साथ-साथ। कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे, सब बातें उलझकर रह गईं। सुलझा तो कुछ भी नहीं।
वह रात भी वैसी ही थी। पता नहीं पिछवाड़े का पीपल बोला था या बदरू मियां ''कादिर मियाँ!... बन गया साला पाकिस्तान... भैयन, अब बन गया पूरा पाकिस्तान...''
कितनी डरावनी थी वह चाँदनी रात। नीचे आंगन में तुम्हीं पड़ी थीं बन्नो...चाँदनी में दूध-नहायी और पिछवाड़े पीपल खड़खड़ा रहा था और बदरू मियाँ की आवाज़ जैसे पाताल से आ रही थी ''कादिर मियाँ!... बन गया साला पाकिस्तान...''
दोस्त! इस लम्बे सफर के तीन पड़ाव हैं- पहला, जब मुझे बन्नो के मेहंदी के फूलों की हवा लग गयी थी, दूसरा जब इस चाँदनी रात में मैंने पहली बार बन्नो को नंगा देखा था और तीसरा तब, जब उस कमरे की चौखट पर बन्नो हाथ रखे खड़ी थी और पूछ रही थी ''और है कोई?''
हाँ था। कोई और भी था।...कोई।
बन्नो, एक थरथराते अन्धे क्षण के बाद हँसी क्यों थीं? मैंने क्या बिगाड़ा था तेरा ! तू किससे बदला ले रही थी? मुझसे? मुनीर से? या पाकिस्तान से? या किसे जलील कर रही थी मुझे, अपने को, मुनीर को या...
पाकिस्तान हमारे बीच बार-बार आ जाता है। यह हमारे या तुम्हारे लिए कोई मुल्क नहीं है, एक दुखद सचाई का नाम है। वह चीज या वजह जो हमें ज्यादा दूर करती है, जो हमारी बातों के बीच एक सन्नाटे की तरह आ जाती है। जो तुम्हारे घरवालों, रिश्तेदारों या धर्मवालों के प्रति दूसरों के एहसास की गहराई को उथला कर देती है। तब उन दूसरों को उनके इस कोई के दुख उतने बड़े नहीं लगते जितने वे होते हैं, उनकी खुशी उतनी खुशी नहीं लगती जितनी वह होती है। कहीं कुछ कम हो जाता है। एहसास की कुछ ऐसी ही आ गयी कमी का नाम शायद पाकिस्तान है यानी मेहंदी के फूल हों, पर हवा न चले, या कोई फूँक मारकर उनमें गन्ध न पैदा करे। जैसे कि फूल हों, रंग न हो। रंग हो गन्ध न हो। गन्ध हो, हवा न हो। यानी एहसास की रुकी हुई हवा ही पाकिस्तान हो।
सुनो, अगर ऐसा न होता तो मुझे चुनार छोड़कर दरवेश क्यों बनना पड़ता? वही चुनार जहाँ मेहंदी फूलती थी। मिशन स्कूल के अहाते के पास जहाँ से हम गंगा घाट के पीपल तले आते थे और राजा भरथरी के किले की टूटी दीवार पर बैठकर इमलियाँ खाया करते थे।
वह शाम मुझे अच्छी तरह याद है जब कम्पाउंडर जामिन अली ने आकर दादा से कहा था ''और तो कुछ नहीं है, पर लोग मानेंगे नहीं। मंगल को कुछ दिनों के लिए कहीं बाज़ार भेज दीजिए। यहाँ रहेगा तो बन्नो वाली बात बार-बार उखड़ेगी। शादी तो नहीं हो पाएगी, दंगा हो जाएगा।''
तुम नहीं सोच सकते कि सुनकर मुझ पर क्या बीती थी! चुनार छोड़ दूँ, फिर छूट ही गया... कैसी होती थीं चुनार की रातें... गंगा का पानी। काशी जाती नावें। भरथरी के किले की सूनी दीवारें और गंगा के किनारे चुंगी की वह कोठरी जिसमें छप्पर में बैठकर मैं बन्नो के आने-जाने का अन्दाज़ लगाया करता था। नालियों की धार से फटी जमीन वाली वे गलियाँ जिनसे बन्नो बार-बार गंगा-किनारे आने की कोशिश करती थी और आ नहीं पाती थी। इन्तंजार... इन्तंजार...
हमें तो यह भी पता नहीं चला था कि कब हम बड़े मान लिए गए थे। कब हमारा सहज मिलना-जुलना एकाएक बड़ी-बड़ी बातों का बायस बन गया था।
बस्ती में तनाव पैदा हो जाएगा, इसका तो अन्दाज तक नहीं था। यह कैसे और क्यों हुआ, बन्नो? पर तुम्हें भी क्या मालूम होगा। फिर हमने बात ही कहाँ की?
तीनों पड़ाव ऐसे ही गुजर गए। कहीं रुककर हम बात भी नहीं कर पाए। न तब, जब मेहंदी के फूलों की हवा लगी थी; न तब, जब उस चाँदनी रात में तुम्हें पहली बार नंगा देखा था; और न तब, जब चौखट पर हाथ रखे तुम पूछ रही थीं और है कोई!
मेहंदी के फूल
चुनार! मेरा घर, तुम्हारा घर! मेरे घर से गुजरती थी ईंटों वाली गली जो शहर-बाज़ार को जाती थी। जो गंगा के किनारे-किनारे चलकर भरथरी महाराज के किले के बड़े फाटक तक पहुँचती थी।
जहाँ से सड़क किले की ओर मुड़ती थी, वहीं थी चुंगी। गंगा-घाट पर लगने वाली नावों से उतरे सामान पर महसूल लगता था। मछली, केंकड़े, कछुए आते थे, मौसम में उस पार से आम भी आते थे। चुंगी वाले मुंशीजी दिन-भर रामनाम जपते और महसूल के बदले में जिंस लेते रहते थे। वे दिन में दस बार पीपल तले के महादेव को गंगाजल चढ़ाते थे और छप्पर में बैठकर तीन-चार लड़कों को पढ़ाया करते थे।
चुंगी के पास कोहनी जैसा मोड़ था, बाई तरफ खरंजों की सड़क किले को जाती थी, दाई तरफ से आकर जो सड़क मिलती थी, वह कच्ची थी। उस कच्ची सड़क पर नालियों ने रास्ते बना लिए थे, जिनका पानी गंगाघाट की रेत में सूखता रहता। इसी कच्ची सड़क पर कई गलियाँ नालियों के साथ-साथ उतरती थीं। बहते पानी से कटी-फटी गलियाँ! यही गलियाँ बन्नो की गलियाँ थीं।
जहाँ बन्नो की गलियाँ खत्म होती थीं, वहाँ से पथरीली सड़क मिशन स्कूल तक जाती थी जो अंग्रेजों की पुरानी कोठी थी। यहीं पर थी मेहंदी की बाड़ और धतूरों का मैदान।
इस धतूरे के मैदान ने मुझे बड़ा दुख दिया था। जब बस्ती में मुझे और बन्नो को लेकर तनाव पैदा हो गया था तो एक बार बन्नो जैसे-तैसे चुंगी तक आयी और बोली थी ''मौलवी साहब के साथ वाले अगर ज्यादा बदमाशी देंगे मंगल, तो मैं धतूरे खाकर सो जाऊँगी। तुम शहर छोड़कर मत जाना। तुमने शहर छोड़ा तो गंगाजी यहाँ हैं, सोच लेना...।''
ज्यादा बात नहीं हो पाई थी। वह चली गयी थी। मैं कुछ बता भी नहीं पाया था कि मेरे घर में क्या कोहराम मचा हुआ है, कि कैसे रोज बाज़ार में दादा जी को वे लोग धमकियाँ दे रहे थे जिन्हें वे पहचानते तक नहीं थे। सभी को डर था कि कहीं किसी दिन मेरी हत्या न कर दी जाए या रात-बिरात कहीं मुसलमान घर में न घुस पड़ें।
पाकिस्तान तो बन चुका था बन्नो, उसके बाद भी तुम्हारे अब्बा भरथरीनामा लिख रहे थे।
माता जी पिछले तप से नृप बना, अब नृप से बनूँ फकीर।
आंखिर वंक्त वंफात के, हर होंगे दिलगीर॥
तेरे अपनी खल्क सुपुर्द करी उनके सिर पर सर गरदान किया।
बर्बाद सब सल्तनत करी बन जोगी मुल्क वीरान किया।
लोग कहते थे ड्रिल मास्टर का दिमाग बिगड़ गया है जो भरथरी-नामा लिख रहे हैं। यह तुरक नहीं है, यहीं का कोई काछी-कहार है। तभी हमें पता चला था कि मुसलमान वही है जो ईरानी-तूरानी है, यहाँ का मुसलमान भी मुसलमान नहीं है... ड्रिल मास्टर साहब को सबने अलग-सा कर दिया था, पर उन्हीं की बन्नो की बात लेकर सब खड़े हो गए थे। जैसे वे ज्यादा बड़े सरपरस्त थे।
तुम्हें नहीं मालूम, पर मुझे मालूम है बन्नो, ड्रिल मास्टर साहब ने कुछ भी नहीं कहा था, इसके सिवा कि जो मौलवी साहब और बाकी लोग ठीक समझें, वही ठीक होगा। वे खुद कुछ सोच ही नहीं पा रहे थे। एक दिन छिपकर आए थे और दादाजी के पास रो पडे थे। उस दिन के बाद वे भरथरीनामा तो लिखते रहे थे पर किसी को सुनाने की हिम्मत नहीं करते थे। वे लिखते रहे, इसका पता मुझे वक्त मिला था जब घरवालों की घबराहट और खुद कुछ न समझे पाने, तय न कर पाने के कारण मैं शहर छोड़ रहा था और चुंगी वाले मुंशीजी ने मुझे चुपचाप विदाई देते-देते एक पुरजा मेरे पसीने से तर हाथ में थमा दिया था।
वह रात बहुत डरावनी थी। बस्ती पर काल मंडरा रहा था। सब दहशत के मारे हुए थे। पता नहीं कब क्या हो जाए। कब 'या अली, या अली' की आवाजें उठने लगें और खून-खराबा हो जाए। गंगा भी उस दिन घहरा रही थी। तट का पीपल भी अशान्त था। बहुत तेज हवा थी। किला सांय-सांय कर रहा था और पाँच-सात हिन्दुओं के साथ हाँ, कहना पड़ता है बन्नो, हिन्दुओं के साथ दादा मुझे स्टेशन छोड़ने आ रहे थे ताकि मैं जिऊँ-जागूँ... कहीं भी परदेस में रहकर। पहले सोचा गया कि मामा के यहाँ जौनपुर चला जाऊँ और वहाँ रेलवे वर्कशाप, कुर्ला, में काम कर रहे मौसा के पास रहूँ, वहीं नौकरी ढूँढ़ लूँ।
कैसी थी वह रात, बन्नो ! और कितना बेइज्ज़त होकर मैं निकल रहा था। दिमाग में हजारों हथौड़े बज रहे थे। एक मन करता था कि लौट पडूँ, घर से गंडासा उठाऊँ और तुम्हारे 'उन मुसलमानों' पर टूट पडूँ। खून की होली खेलकर तुम्हें जीतूँ और न जीत पाऊँ तो तुम्हें भी मारकर गंगा में जल-समाधि ले लूँ।
पर कहीं दहशत भी होता था और यह ख्याल भी आता था कि ड्रिल मास्टर साहब ने तो कुछ भी नहीं कहा है। मुखालफत भी नहीं कि है... सिवा इसके कि वे चुप रह गए हैं, उन्हें भरथरीनामा लिखना है। अब लगता है कि वे भरथरीनामा न लिख रहे होते तो शायद इतना विरोध न होता...
शहर को साँप सूँघ गया था। दादा को बता दिया था कि अगली सुबह मेरी शक्ल न दिखाई दे। आधी रात तक सोचना-विचारना चलता रहा, फिर आखिरी गाड़ी रह गयी थी पार्सल, जो मुगलराय जाती थी।
हाँ, पाँच-सात हिन्दुओं के साथ मुझे स्टेशन तक पहुँचाया गया। हम बाज़ार वाली सड़क से भी नहीं आए। किले वाले सुनसान रास्ते से स्टेशन की सड़क पकड़ी थी। मुंशी जी लालटेन लिए पक्की सड़क तक आए थे और तभी वह पुरजा उन्होंने पसीजी हथेली में थमा दिया था। वहाँ तो रोशनी थी नहीं। स्टेशन पर सब साथ थे। पार्सल ढाई बजे रात को छूटी थी। दादा जी कितने परेशान-बेहाल थे। सब बहुत डरे हुए, अपमानित, और शायद इसीलिए बहुत खूँख्वार भी हो रहे थे। लग रहा था कि मुझे शहर से हटा देने के बाद दंगा जरूर होगा। अब ये लौटकर जाने वाले हिन्दू दंगा करेंगे। ढलती रात में ये सोते हुए मुसलमानों को चीर-फाड़ डालेंगे। हिन्दू का हिन्दू होना भी कितना तकलीफदेह है बन्नो... यह होते ही कुछ कीमती घट जाता है।
बहुत तकलीफदेह थी वह विदाई। उतरती रात की हवा में खुनकी थी और स्टेशन पर पत्थर का फर्श काफी ठंडा था। सामने विंध्या की पहाड़ियाँ और ताड़ के पेड़ चुपचाप खड़े थे।
अब तुम्हें क्या बताऊँ... क्या कभी सोचा था कि इस तरह मेरा घर छूट जाएगा? अपने शहर से बेइज्जत होकर कोई कहीं भी चैन नहीं पाता। मुझे वे गलियाँ याद आ रही थीं जिनमें बन्नो आने की कोशिश करती थी। मैं चुंगी पर बैठकर कितनी प्रतीक्षा करता था और जहाँ मेहंदी के फूल पड़े दिखाई देते थे, समझ लेता था कि बन्नो यहाँ तक आ पायी है। आगे नहीं बढ़ पायी। किसी ने देख लिया होगा, टोका होगा या रोका होगा।
सच कहता हूँ तुमसे, उसी दिन से एक पाकिस्तान मेरे सीने में शमशीर की तरह उतर गया था। लोगों के नाम बदल या अधूरे रह गए थे। बस्ती में हवा का बहना बन्द हो गया था और लगा था कि बन्नो घिर गयी है। शर्म, डर, गुस्सा, आँसू, खून, बदहवासी, पागलपन, प्यार, क्या-क्या उबल-धधक रहा था मेरे भीतर। सच कहूँ तो यह सब होने के बाद अगर बन्नो मिल भी जाती तो कुछ नहीं होता। जो होना था, हो चुका था।
पार्सल गाड़ी में बैठकर वह पुरजा पढ़ा था। तुम्हारे पास वही कहने को था जो मास्टर साहब के पास था। उसी पुरजे से पता चला कि मास्टर साहब भरथरीनामा लिखते जा रहे हैं।
क्यों बनता दरवेश छोड़ दल लश्कर फौज रिसाले को।
क्यों बनखंड में रहता है तज गुल नरगिस गुललाले को॥
क्यों भगवा वेष बनाता है तज अतलस शाल दुशाले को।
क्यों दर-दर अलख जगाता है तज कामरु ढाके बंगाले को॥
क्यों हुआ सैदाई! छोड़ सब बादशाही॥
हां... सैदाई ही कह लो... अतलस शाल-दुशाले और नरगिस गुलेलाला सब कुछ तो था सचमुच। नीम, आक, मेहंदी और धतूरे के फूल किस नरगिस से कम थे, बन्नो? पर उस पाकिस्तान का हम क्या करते?
गाड़ी चली आयी और मैं सचमुच दरवेश हो गया। फिर कभी घर लौटने का मोह नहीं हुआ।
मैं जानता था कि मास्टर साहब की साँस भी चुनार में घुट रही होगी। बन्नो की साँसों का कुछ पता नहीं था। बस, इतना-भर लगता था कि उसने गंगा में डूबकर जान नहीं दी होगी। वह होगी। रातों में किसी का बिस्तरा गर्म करती होगी। प्यार करती होगी। मार खाती होगी। जिनह को बर्दाश्त करती होगी। बीबी की तरह पूरी ईमानदारी से मन्नतें मानती होगी, मेहंदी रचाती होगी। बच्चों का गू-मूत करती होगी। सुखी होगी, पछताती होगी। सब भूल गयी होगी। जो नहीं भूल पायी होगी, वह रुका हुआ वक्त उसका पाकिस्तान बन गया होगा। उसे सताने के लिए...
खैर बन्नो... जो हुआ सो हो गया। मैं मुगलसराय से इलाहाबाद आया और इलाहाबाद से बम्बई। कुर्ला की रेलवे वर्कशाप में मौसा ने कुछ काम दिला दिया। कुछ दिन वहीं गुजारे... फिर मैं पूना चला गया। अस्पताल की लिंब फैक्टरी में, जहाँ लकड़ी के हाथ-पैर बनते हैं। मुझे मालूम था कि अब कोई भी चुनार नाम की जगह में जी नहीं पाएगा न मेरा घर, न तुम्हारा घर। पर यह पता नहीं था कि दादा इतनी दूर चले आएँगे और साथ में कई घरों को लेते आएँगे।
सच पूछो तो चुनार में रह ही क्या गया था? जब पाकिस्तान बन जाता है तो आदमी आधा रह जाता है। फसलें तबाह हो जाती हैं। गलियाँ सिकुड़ जाती हैं और आसमान कट-फट जाता है। बादल रीत जाते हैं और हवाएँ नहीं चलतीं, वे कैद हो जाती हैं।
दादा के खत से मालूम हुआ था, कई वर्ष बाद, कि कुछ घर जुलाहों-बढ़ई के साथ लेकर वे फसलों, गलियों, आसमान, बादल और हवा की तलाश में निकल पड़े थे और भिवंडी आ गए थे। यह नहीं मालूम था कि बन्नो का घर भी साथ आया था। ड्रिल मास्टर क्या करते आकर? यह मैंने भी सोचा था। दादा का आना तो ठीक था। वे सूती कपड़े का व्यापार करते थे। आठ घर मुसलमान जुलाहों, दो घर हिन्दू बढ़इयों को लेकर वे भिवंडी आ गए थे। पता नहीं शुरू-शुरू में उन्हें क्या परेशानी हुई।
बन्नो, तुम्हारे बारे में मुझे तब पता चला जब दादा एक बार मुझसे पूना मिलने आए। तब बहुत मामूली तरह से उन्होंने बताया था कि ड्रिल मास्टर साहब का घर भी आया है। उन्हें भिवंडी स्कूल में जगह मिल गयी है और यह भी कि उन्होंने बन्नो की शादी कर दी है। दामाद वहीं उनके साथ वाले मुहल्ले में रहता है, करधे चलाता है। रेशम का बढ़िया कारीगर है।
जिस तरह दादा ने यह खबर दी थी, उससे लग रहा था कि वे जान-बूझकर इसे मामूली बना देने की कोशिश कर रहे थे।
लेकिन मुझे यह नहीं मालूम था बन्नो, कि बाजे मुहल्ले में दादा और तुम्हारा घर एक ही है कि ऊपर वे रहते हैं और तुम लोग नीचे। बाकी लोग बंगालपुरा और नई बस्ती में हैं। शायद मास्टर साहब पिछले पछतावे को भूल सकने के लिए ही ऐसा कर बैठे हों। मन तो बहुत हुआ कि जल्दी से जल्दी चलकर तुम्हें देख आऊँ पर सच पूछो तो मन उखड़ा हुआ था। यह सब सुनकर और भी उखड़ गया था कि तुम भी वहीं हो और शादीशुदा हो। और फिर बातों-बातों में दादाजी ने घुमा-फिराकर यह भी कह दिया था कि मैं भिवंडी न आऊँ तो बेहतर है क्योंकि उन्हें मास्टर साहब का खयाल था। वे जानते थे कि मास्टर साहब ने कुछ नहीं किया था और दादा जी उन्हें मेरी उपस्थिति से दु:खी या जलील नहीं करना चाहते थे। कितनी अजीब स्थिति थी यह... क्या यह नहीं हो सकता था कि घर ऐसा ही रहता और इसमें रहने को मुझे भी जगह मिलती?
मन में तरह-तरह के खयाल आते थे, दबा हुआ गुस्सा कहीं फूट पड़ा तो?
अगर मेरे भीतर का धधकता हुआ पाकिस्तान फट पड़ा तो? अगर मैंने तुम्हारे आदमी को तुम्हारे साथ न सोने दिया तो? अगर भिवंडी से उसे भी मैं उसी तरह निकाल सका, जैसे, कि कभी मैं निकाला गया था, तो? किसी रात मैं बर्दाश्त न कर पाया और तुम्हारे कमरे में घुस पड़ा तो?
मुझे मालूम है, दादा और मास्टर साहब दोनों एक-दूसरे को अपने मासूम होने का भरोसा दे रहे थे। पर मेरे पास क्या भरोसा था? उनका क्या बिगड़ा था! बिगड़ा तो मेरा था। मैं तभी से एक नकाब लगाए घूम रहा था। हाथों में दस्ताने पहने और कमर में खंजर दबाए।
लेकिन बन्नो, भिवंडी में भी दंगा हो गया। मेरी-तुम्हारी वजह से नहीं, उसी एहसास की कमी की वजह से। सुना तो मैं सन्न रह गया। पता नहीं अब क्या हुआ होगा? पाँच बरस पहले तो मैं वजह हो सकता था, पर अब तो मैं वहाँ नहीं था। गया तक नहीं था। इसी वजह से कि तुम दिखाई दोगी और मैं दंगा शुरू कर दूँगा।
पर तुम मुझे दिखाई दीं तो इस हालत में।
रात चाँदनी थी और बन्नो नंगी थी।
मैं जब भिवंडी पहुँचा तो दंगा खत्म हुए दस-बारह दिन हो चुके थे। घुसते ही बस्ती में जगह-जगह काले चकते दिखाई पड़ते थे। कुछ घर, फिर एक काला मैदान, फिर मकानों-घरों का एक सहमा हुआ झुंड और उसके बाद फिर एक काला मैदान। उड़ती हुई राख। आग और अंगारों की महक अब नहीं थी। पर राख की एक अलग महक होती है, बुझे हुए शोरे जैसी। कुछ तेंज खरैंदीजो नथुनों से होकर भीतर तक काट करती है।
सुनो, तुमने भी इस महक को जरूर महसूस किया होगा। ऐसा कौन है इस देश में जो राख की महक को न पहचानता हो। जब मैं एस. टी. स्टैंड (बस-अड्डे) पर उतरा, शाम हो रही थी। गश्ल से जो दहशत होता है वैसा कुछ नहीं था। वहाँ, जहाँ पर सिनेमा के पोस्टर लगे हुए हैं, दो-तीन पुलिसवाले बतियाते खड़े थे। बसें ज्यादातर खाली थीं। वे चुपचाप खड़ी थीं। संगमनेर, अलीबाग, भीरवाड़ा या सिन्नर जानेवाली बसों की तो बात ही क्या, शिर्डी जाने वाला भी कोई नहीं था।
बस-अड्डे की टीन तले चार-पाँच पुलिसवाले और दिखाई दिए, खानाबदोशों की तरह छोटी-सी गृहस्थी जमाए हुए। अगर उनकी बन्दूकें गन्नों के ढेर की तरह जमा न होतीं तो शायद यह भी नहीं मालूम पड़ता कि वे पुलिसवाले हैं।
दोनों सड़कें खाली थीं। डाकबंगले में जहाँ कलक्टर डेरा डाले पडे थे, कुछेक लोग चल-फिर रहे थे। थाना कल्याण जाने वाली टैक्सियाँ भी नहीं थीं।
दंगाग्रस्त इलाकों से गुजरना कैसा लगता है, शायद इसका भी अंदाज़ तुम्हें हो, मुझे बहुत नहीं था। एक खास किस्म का सन्नाटा...या टपकन। वीरान रास्ते और साफ-साफ दिखाई देनेवाला खालीपन। कोई देखकर भी नहीं देखता। देखता है तो गौर से देखता है पर बिना किसी इंसानी रिश्ते के। यह क्यों हो जाता है? एहसास इतना क्यों मर जाता है? या कि भरोसा इतना ज्यादा टूट जाता है।
इतने छोटे-से कस्बे में बाजे मोहल्ले का पता पूछना भी दुश्वार हो गया। खैर, जैसे-तैसे मोहल्ला मिला। घर भी मिला पर उसमें सन्नाटा छाया हुआ था। हिन्दुओं ने यह क्या कर डाला था क्या इतने सन्नाटे में कोई इंसान रह सकता है।
मुझे मालूम था बन्नो, ड्रिल मास्टर साहब, तुम्हारा शौहर मुनीर सब यहीं होंगे। मेरे घरवाले भी होंगे। पर ऊपर के खंड में अँधेरा था। चाँदनी रात न होती तो मैं घबरा ही जाता।
सचमुच, एक क्षण के लिए लगा कि अगर मैंने चुनार न छोड़ दिया होता, तो उसकी भी यही दशा होती। फिर बन्नो, तुम्हारा ख्याल आया। कैसे तुम्हारे सामने पडूँगा। सारा खौलता हुआ खून ठंडा पड़ गया था। मैं जैसे चुनार की उन्हीं गलियों में आ गया था उसी उम्र के साथ।
घर का दरवाजा खुला था। मैंने आहिस्ता से भीतर कदम रखा। एक आँगन-सा। आँगन के एक कोने में दो-एक घड़े रखे थे। उन्हीं के पास दो सुरमई छायाएँ थीं। दोनों औरतें थी। एक औरत कमर तक नंगी थी। दूसरी उसी के पास बैठी बार-बार उसके गले तक हाथ ले जाती थी और नंगी छातियों से कमर तक लाती थी। पता नहीं क्या कर रही थी। पर एक औरत की नंगी पीठ दिखाई दे रही थी। वे दोनों औरतें वहाँ बैठी क्या कर रही थीं, मैं समझ नहीं पाया। सहमकर बाहर आ गया।
बाहर खड़ा था कि ड्रिल मास्टर साहब दिखाई दिए। उन्होंने एक मिनट बाद ही पहचान लिया। लेकिन उन्होंने आवभगत नहीं की। वे सोच ही नहीं पाए कि मुझे किस तरह लें! किस बरस के किस दिन से बात शुरू करें, किस रिश्ते से करें, कहाँ से करें। वे कुछ कहें इसके पहले ही मैंने उबार लिया, जैसे किसी अजनबी से मैंने पूछा हो, वैसे ही दादा जी के बारे में पूछ दिया।
''
वो तो चुनार चले गए परसों!'' मास्टर साहब ने कहा।
''
परसों...'' मैं और क्या कहता।
''
हाँ, रुके नहीं। बहुत-से लोग वापस चले गए है।'' वे बोले।
और मैं उसी क्षण समझ गया कि सब बातों के बावजूद दादाजी शायद फिर भी चुनार लौट सकते थे पर मास्टर साहब नहीं। मास्टर साहब के चुनार छोड़ने का सबब वह नहीं था, जो दादाजी का या मेरा रहा होगा। उनका यहाँ चले आना वक्त का दिया हुआ वनवास था और वक्त के दिए हुए वनवास से लौट सकना आसान नहीं होता। मुझे तो सिर्फ कुछ लोगों ने वनवास दिया था।
घरवाले वहाँ नहीं थे, इसलिए कुछ कह भी नहीं पा रहा था। दंगा-ग्रस्त शहर। कहाँ पनाह मिल सकती थी? मास्टर साहब अपने घर टिका लें, यह हो नहीं सकता था।
''
सब सामान वगैरह भी ले गए हैं...''
''
नहीं, ज्यादा सामान तो यहीं है...'' वे बोले।
''
ताला बन्द कर गए हैं?''
''
हाँ, पर एक चाबी मेरे पास है।'' उन्होंने मुझे सकुचाते हुए सहारा दिया।
''
मैं एक दिन रुकूँगा, वैसे भी कल शाम चला जाना है।'' मैंने खामख्वाह कहा, क्योंकि कोई और चारा नहीं था। अजनबी बस्ती में रात पड़े मैं कहाँ जा सकता था!
मुझे छोड़कर वे घर में घुस गए। एक मिनट बाद वे एक मोमबत्ती और चाबी लेकर आए और बगल के जीने से ऊपर चढ़ा ले गए। ताला खोलकर मुझे पकाड़ाते हुए बोले ''खाना-वाना खाया है?''
''
हाँ'' मैंने कहा और भीतर चला गया।
''
कुछ जरूरत हो तो बता देना...'' वे बोले और नीचे चले गए। भरथरीनामा का शायर काफी समझदार था। 'बता देना'! यह नहीं कि माँग लेना।
बन्नो, कितनी विचित्र थी वह रात! तुम्हें मालूम भी नहीं था कि ऊपर मैं ही हूँ। मास्टर साहब ने बताया या नहीं बताया, क्या मालूम। कुछ भी कह दिया होगा। सुबह-सुबह पुलिस न आती तो तुम्हें जिन्दगी-भर पता न चलता कि रात छत पर मंडराने वाली छाया कौन थी।
चारों तरफ सन्नाटा... सन्नाटा...
रात चाँदनी थी। हवा बन्द थी। मैं साँस लेने या शायद बन्नो को देख सकने के लिए खुली छत पर खाट डालकर लेट गया था। कुछ देर आहट लेता रहा। शायद कोई आहट तुम्हारी हो बन्नो... पर फिर मन डूब गया। चाहे कितनी गर्मी हो पर औरत को तो आदमी के साथ ही लेटना पड़ता है।
पिछवाड़े वाला पीपल चाँदनी में नहाया हुआ था। मैंने खाट ऐसी जगह डाल ली थी, जहाँ से आँगन में देख सकूँ... पर जो कुछ देखा वह बहुत भयावना था।
दो खाटें आँगन में पड़ी थीं। एक पर अम्मी थी, दूसरी पर बन्नो! कितना अजीब लगा था बन्नो को लेटा हुआ देखकर...
चाँदनी भर रही थी और बन्नो अपना ब्लाउज खोले, धोती कमर तक सरकाए नंगी पड़ी थी। उसकी नंगी छातियाँ पानी भरे गुब्बारे की तरह मचल रही थीं और वह अधमरी मछली की तरह आहिस्ता-आहिस्ता बिछल रही थी।
''
आये अल्ला...'' यह बन्नो की आवाज़ थी।
''
सो जा, सो जा !'' अम्मी बोली थी।
''
ये फटे जा रहे हैं...'' बन्नो ने कहा और उसने अपनी दोनों छातियाँ कसकर दबा ली थीं जैसे उन्हें निचोड़ रही हो।
अम्मी उठकर बैठ गईं ''ला, मैं सूत दूँ!'' कहते हुए उन्होंने बन्नो की भरी छातियों को सूतना शुरू कर दिया था। दूध की छोटी-छोटी फुहारें बन्नो की छातियों से झर रही थीं और वह हल्के-हल्के कराहती और सिसकारती थी। दूध की टूटी-टूटी फुहार, जैसे इत्र के फव्वारे में कुछ अटक गया हो। फिर दस-बीस बूँदें एकाएक भलभलाकर टपक पड़ती थीं। दो-चार बूँदें उसके पेट की सलवटों में समाकर पारे की तरह चमकती थीं। उसकी नाभि में भरा दूध बड़े मोती की तरह जगमगा रहा था।
अम्मी उसकी छातियों का दूध अपनी ओढ़नी के कोने से सुखाती और चार-छ: बार के बाद वहीं किनारे की पाली में कोना निचोड़ देती थी। मटमैली नाली में पनीले का दूध का पतला साँप कुछ दूर सरककर कहीं घुस जाता था।
ओह बन्नो! यह मैंने क्या देखा था? मैं दहशत के मारे सन्न रह गया था। सारा बदन पसीने से तर था। सिसकारियाँ और कराहटें और आसमान में लटकते दो डबडबाए स्तन! कुछ दहशत, कुछ उलझन, कुछ बेहद गलत देख लेने का गहरा पछतावा...।
बहुत रात गए मैं छत पर टहलता रहा। जब नीचे शान्ति हो गई और मैंने देख लिया कि बन्नो धोती का पल्ला छाती पर डालकर लेट गयी है, तब मैं भी लेट गया। यह कैसा दृश्य था? आसमान में जगह-जगह दूध-भरी छातियाँ लटकी हुई थीं... इधर-उधर...।
आँख लगी ही थी कि एकाएक पिछवाडे ख़ड़खड़ाहट हुई। कोई रो रहा था और नाक पोंछते हुए कह रहा था ''कादिर मियाँ! बन गया साला पाकिस्तान! भैयन, अब बन गया पूरा पाकिस्तान...।''
फिर रोना रुक गया था। कुछ देर बाद वही आवाज़ फिर आयी थी ''कादिर मियाँ, अब यहीं इहराम बाँधेंगे और तलबिया कहेंगे! अपना हज्ज तो हो गया, समझे कादिर मियाँ!''
अगर पिछवाड़े पीपल न होता तो शायद पाताल से आती यह आवांज सुनकर मैं भाग जाता। पर अब तो खुली आँखों को तरह-तरह के दृश्य दिखाई दे रहे थे। आसमान से गिरता खून, अँधेरे में भागती हुई लाशें, बीच बाज़ार खड़े हुए धड़ और कटी गर्दनों से फूटते हुए फव्वारे। लपटों में नंगे नाचते हुए लोग...।
पीपल न खड़खड़ाता तो मैं बहुत डर जाता। उसके पत्तों की आवाज़ ऐसे आ रही थी जैसे अस्पताल के दफ्तर में बैठे हुए टाइप बाबू अपनी मशीन पर कुछ छाप रहे हों...बस यही आवाज़ जानी-पहचानी थी। बाकी सब बहुत भयानक था।
सुबह माथा बेतरह भारी था। आँखों में जलन थी। हाथ-पैर सुन्न थे। उठना पड़ा, क्योंकि पुलिस आई थी। मास्टर साहब ने आकर जगाया था। वे डरे हुए थे। बोले ''पुलिस तुम्हें पूछ रही है...।''
''
क्यों?''
''
बाहरवाले की तहकीकात करती है। हमसे पूछ रहे थे रात कौन आया है, कहाँ से आया है, क्यों आया है?''
सुनते ही मेरे आग लग गयी थी। तुम्हीं बताओ, जब मैं घर से उस अँधेरी रात में निकला या निकाला गया था तो कोई पूछने आया था कि इस रात में कौन जा रहा है, कहाँ जा रहा है, क्यों जा रहा है?''
पूरे आदमी को न समझना, सिर्फ उसके एक वक्ती हिस्से को समझना ही तो पाकिस्तान है बन्नो! जब पुलिस मुझे सुबह-सुबह जगाकर थाने ले गयी तो मैं समझ गया कि अब हम और तुम दोनों पाकिस्तान में घिर गए हैं... पर यह घिर जाना कितना दु:खद था!
थाने पर मेरी तहकीकात हुई। मैं यहाँ क्यों आया हूँ? क्या बताता मैं उन्हें? आदमी कहीं क्यों आता-जाता है? पुलिस वाले मुझे बहुत परेशान करते अगर मास्टर साहब वहाँ खुद न पहुँच गए होते। उन्होंने ही सारी तफसील दी थी। उस वक्त उनका मुसलमान होना कारगर साबित हुआ था। पर मुझे लग रहा था कि उस मौजूदा माहौल में मास्टर साहब फिर तो वही गलती नहीं कर रहे थे जो उन्होंने भरथरीनामा शुरू करके की थी।
थाने में सवालों के जवाब देना आसान भी था और टेढ़ा भी। आखिर वहाँ से निकलकर हम सामने पड़े कटी लकड़ियों के ढ़ेर पर बैठ गए थे। मास्टर साहब चाहते थे कि मैं होश-हवास में आ जाऊँ, क्योंकि मेरा रंग फक हो गया था।
वहीं तीन बत्ती के पास दो-तीन लोग और बैठे थे। शायद किसी की जमानत या तफतीश के लिए आए थे। उनके चेहरे लटके हुए और गमजदा थे। मौलाना की आँखों में खौंफ था। वे साथ बैठे लोगों को बता रहे थे ''रसूल ने कहा है कि सूर तीन बार फूँका जाएगा। पहली बार फूँकेंगे तो लोग घबरा जाएँगे, सब पर खौफ बरपा हो जाएगा। दूसरी बार जब सूर में फूँक मारी जाएगी तो सब मर जाएँगे। तीसरी आवाज़ पर लोग जी उठेंगे और अपने रब के सामने पेश होने के लिए निकल आएँगे... यही होना है... सूर में अभी पहली बार फूँक मारी गयी।''
''
भरथरीनामा लिख रहे हैं?'' मैंने पूछा।
''
हाँ... भरमता मन मेरा, आज यहाँ रैन बसेरा!
कहो बात जल्द कटे रात, जल्द हो फंजर सबेरा!!...
कहते-कहते मास्टर साहब उधर देखने लगे जहाँ छत की सूनी मुंडेरों पर घास के पीले फूल खिले थे। घनी घास में से अबाबीलें छोटी मछलियों की तरह उछलती थीं। घास की टहनी से पीले फूल चोंच से तोड़कर उड़ती थीं। चोंच से फूल गिर जाते थे तो उड़ते-उड़ते फिर तोड़ती थीं...अबाबीलों का उड़ते-उड़ते या घनी घास में से उछलकर फूलों तक आना, पीले फूलों का तोड़ना, चकराते हुए फूलों का गिरना और अबाबीलों का दूर आसमान से फिर लौटकर आना...।
मास्टर साहब खामोशी से यही देख रहे थे। आखिर मैंने उन्हें टोका ''कल रात...।''
''
हाँ, वह बदरू है...पगला गया है। उसके चालीस करधे थे, जलकर राख हो गए। पिछवाड़े पीपल के नीचे ही तब से बैठा है। रात-भर रोता है। गालियाँ बकता है...'' मास्टर साहब बोले।
''
घर में कुछ...'' मैंने बहुत हिम्मत करके कहा तो जोगी की तरह मास्टर साहब सब बता गए, ''हाँ... बन्नो को तकलीफ हैं। दंगे से तीन दिन पहले बच्चा हुआ था। डॉ. सारंग के जच्चा-बच्चा घर में थी। दंगाइयों ने वहाँ भी आग लगा दी। रास्ता रुंध गया तो जान बचाने के लिए दूसरी मंजिल से जच्चाओं को फेंका गया। बच्चों को फेंका गया। नौ जच्चा थीं। दो मर गईं। पाँच बच्चे मर गए। बन्नो का बच्चा भी गली में गिरकर मर गया। उस वक्त मारकाट मची हुई थी। सवेरे हम बन्नो को जैसे-तैसे ले आए। अब उसके दूध उतरता है तो तकलीफ होती है...।''
कुछ देर खामोशी रही। अबाबीलें घास के फूल तोड़ रही थीं। उठने का बहाना खोजते हुए मैंने कहा, ''सोचता हूँ, दोपहर ही पूना चला जाऊँ...।''
''
जा सको तो चुनार चले जाओ। अपने दादा को देख आओ...'' मास्टर साहब बोले।
''
क्यों, उन्हें कुछ हो गया है क्या?''
''
हाँ... उनकी एक बाँह कट गयी है। घर के सामने ही मारकाट हुई। वे न होते तो शायद हम लोग जिन्दा भी न बचते। हमला तो हम पर हुआ था। वे गली में उतर गए। तभी बाँह पर वार हुआ। बायीं बाँह कटकर अलग गिर पड़ी। लेकिन उनकी हिम्मत... अपनी ही कटी बाँह को जमीन से उठाकर वे लड़ते रहे... खून की पिचकारी छूट रही थी। कटी बाँह ही उनका हथियार थी... दंगाई तब आग के गोले फेंककर भाग गए। गली में उनकी बाँह के चिथड़े पड़े थे। जब उठाया तो बेहोश थे। दाहिने हाथ में कटी बाँह की कलाई तब भी जकड़ी हुई थी... पर उस खुदा का लाख-लाख शुक्र। थाना अस्पताल में मरहम-पट्टी हुई। आठ दिन बाद लौटे। दूसरे ही दिन चुनार चले गए...।''
''
तो उनकी बाँह का क्या हाल था?...'' मैं सुनकर सन्न रह गया था।
''
ठीक था। चल-फिर सकते थे। कहते थे वहीं चुनार अस्पताल में यही करवाते रहेंगे। या खुदा... रहमकर... बेहतर हो देख आओ...'' मास्टर साहब ने कहा और अपने आँखें हथेलियों से ढाँप लीं।
मेरी चेतना बुझ-सी रही थी। मैं किस जहान में था? ये लोग कौन थे, जिनके बीच मैं था? क्या ये जो कुछ लोग आदमियों की तरह दिखाई पड़ते थे सच थे या कोई खौफनाक सपना? अब तो कटा-फटा आदमी ही सच लगता था। पूरे शरीर का आदमी देखकर दहशत होती थी।
...
मैं फिर आकर कमरे में लेट गया था। मास्टर साहब भीतर चले गए थे। तभी नीचे से कुछ आवाजें आयी थीं। अम्मी, मास्टर साहब, बन्नो का आदमी मुनीर और बन्नो सभी थे। मुनीर कह रहा था, ''यहाँ रहने की जिद समझ में नहीं आती...''
''
तुम्हारी समझ में नहीं आएगी।'' यह आवाज़ बन्नो की थी, ''हम तो पहले इसी धरती से अपना बच्चा लेंगे, जिसने खोया है। फिर जब जगह चले जाएँगे, जहाँ कहोगे...''
मैंने झाँककर देखा। दुबला-पतला मुनीर गुस्से से काँप रहा था। चीखकर बोला, ''तो ले अपना बच्चा यहीं से... जिसने मन आए, ले।''
मैं सकते में आ गया। कहीं कुछ... कहीं इसमें मेरा जिक्र तो नहीं था... पर शायद मैं गलत समझा था। बन्नो भी बिफरकर बोली थी, ''तू अब क्या देगा बच्चा मुझे...। अपना खून बेच-बेचकर शराब पीने से फुर्सत है?...''
तड़ाक!...शायद मुनीर ने बन्नो को मारा था। छोटा-सा कोहराम मच गया था।
बाद में बन्नो मुनीर को कोसती रही थी, ''मुझे मालूम नहीं है क्या? जितनी बार बम्बई जाता है, खून बेचकर आता है। फिर रात-भर पड़ा काँपता रहता है...''
यह सब मैं क्या सुन रहा था, बन्नो! तेरे भीतर भी एक और पाकिस्तान रो रहा था। सभी तो अपने-अपने पाकिस्तान लिए हुए तड़प रहे हैं। आधे और अधूरे, कटे-फटे, अंग-भंग।
ओफ्फ! कितना अँधेरा था उस चाँदनी रात में... जब मैं भिवंडी से उसी तरह चला जैसे एक दिन चुनार से चला था। अड्डे से एक टैक्सी थाना जा रही थी। उसी में बैठ लिया था। जब तक बस्ती रही, काले मैदान भी बीच-बीच में नज़र आते रहे। राख की तेज़ महक भीतर तक उतरती रही। आसमान में डबडबाए स्तन लटकते रहे। चौराहों पर खड़े मुंडहीन धड़ों से खून के फव्वारे छूटते रहे!
थाना! थाना से बस पकड़कर बम्बई। बम्बई से गाड़ी पकड़कर पूना और पूना में फिर कई दिन बुखार से तपता पड़ा रहा।
मैं सब कुछ भूल जाना चाहता था बन्नो... सिर्फ अपने में सिमट आना चाहता था। उम्र का यह सफ़र कितना बेहूदा है कि आदमी कटता-फटता जाता है। लहू-लुहान होकर चलता जाता है।
और ऐसे अकेलेपन में अगर कोई यह आवाज़ सुने कि 'और है कोई?' तो क्या बीत सकती है, इसका अन्दाज़ किसी को नहीं हो सकता। तुम्हें भी नहीं बन्नो!...
और है कोई?
चार या पाँच महीने हो गए थे। दादाजी का खत मिल गया था कि वे फिर भिवण्डी लौट आए हैं। सिंधियों और मारवाड़ियों के कारण माल ज्यादा नहीं मिल पाता इसलिए बाज़ार मन्दा है। सब करघे चल भी नहीं रहे हैं। एक बाँह न रहने के कारण बदन का पासंग बिगड़ गया है। मजाक में उन्होंने यह भी लिखा था कि उनका नाम 'टोंटा' पड़ गया है।
बाकी कोई खबर उन्होंने नहीं दी थी सिवा इसके कि मुनीर बन्नो को लेकर बम्बई चला गया है। पता नहीं वे लोग बम्बई में हैं या पाकिस्तान चले गए। ड्रिल मास्टर नीम-पागल हो गए हैं। घर में ड्रिल करते हैं, स्कूल में कोई पोथी लिखते रहते हैं।
...
उस दिन मैं बम्बई न आता तो तुमसे मुलाकात भी न होती, बन्नो ! और कितनी तकलीफदेह थी वह मुलाकात। बाद में मैं पछताता रहा कि काश, मैं ही होता उसकी जगह। तुमने भी क्या सोच होगा कि मैं यही सब करता हूँ? पर सच कहूँ बन्नो, करता तो मैं भी रहा हूँ पर तुम्हारे साथ नहीं। शायद तुम्हारे कारण करता रहा हूँ।
पूना का दोस्त नहीं था वह। वहीं बम्बई का था। उसका नाम केदार है। कुछ दिन पूना में साथ रहा था, तभी दोस्ती हुई। मैं भिवंडी जाने के लिए बम्बई आया था। बम्बई उतरकर मन उखड़ भी गया था कि क्या करूँगा वहाँ जाकर।
उस शाम से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है बन्नो! वह शाम मैं और केदार साथ गुजारना चाहते थे। कुलावा के एक शराब घर में हमने थोड़ी-सी पी थी। फिर वहाँ से टहलते हुए हैंडलूम हाउस तक आए थे।
उसी के पास कोई गली थी। अब जाऊँ तो पहचान तो लूँगा पर यों याद नहीं है। केदार और मैं दोनों उसी में चले गए। शायद आगे चलकर दाहिने को मुड़े थे। वहीं पर एक सिगरेटवाले की दुकान थी। नीचे कारें खड़ी थीं। लगता था वोहरा मुसलमानों की बस्ती है। बहुत शान्त, साफ-सुथरी।
उस बिल्डिग में लिफ्ट था। यों सीढ़ियाँ भी बहुत साफ-सुथरी थीं। केदार के साथ मैं सीढ़ियों से ही ऊपर गया था। पाँच मंजिल तक चढ़ते-चढ़ते मेरी साँस फूल आयी थी। उस वक्त घरों की खिड़कियों से खाना बनाने की गन्ध आ रही थी। छठी मंजिल एकदम वीरान थी। जिस फ्लैट की घण्टी केदार ने बजायी थी वह उतना साफ-सुथरा नहीं लग रहा था।
दरवाज़ा खुला और हम हिप्पो की तरह हाँफते हुए एक सिंधी के सामने खड़े थे। वह हमें उस कमरे में ले गया जिसमें मामूली तरह के सोफे लगे हुए थे। वह सिंधी अब भी हाँफ रहा था। लगता था ज्यादा बात करेगा तो अभी उसकी साँस उखड़ जाएगी और फिर कभी लौटकर नहीं आएगी।
मुझे उलझन हो रही थी। मैं खुली हवा में साँस लेने के लिए खिड़की के पास खड़ा हो गया था। दूर-दूर तक गन्दी छतें नज़र आ रही थीं। तरह-तरह के आकारों की। मेरे बारे में केदार ने बता दिया था कि मैं वहीं सोफे पर बैठूँगा और इन्तजार करूँगा। उस हाँफते सिंधी ने कोकाकोला की एक बोतल मँगवाकर मेरे लिए रख दी और केदार को लेकर अपनी मेज के पास चला गया। वहाँ वह केदार को एक गुंजला हुआ काला बुर्का दिखा रहा था। कह क्या रहा था, यह वहाँ से सुनाई नहीं पड़ा।
उसके बाद वे दोनों कहाँ गुम हो गए, कुछ पता नहीं चला। दो-एक मिनट बाद केदार के हँसने की आवाज़ बगल से आयी थी।
फिर केदार तो नहीं आया, वह सिंधी उसी तरह हाँफता हुआ आया और जोर-जोर से साँस छोड़ता हुआ बोला, ''बिअर...'' बाकी शब्द उसके हाँफने से ही साफ हो रहे थे ''पिएँगे, मंगवाऊँ?'' 
''
पी लूँगा...'' मैंने कहा तो उसने लड़के को हाँफकर दिखाया और वह बीयर ले आया। सिंधी ने नहीं पी। मैं ही बैठा पीता रहा।
''
आप...'' वह उसी तरह हाँफ रहा था, ''बम्बई...'' मतलब था ''नहीं रहते...''
''
नहीं, पूना रहता हूँ।'' मैंने कहा।
''
घूमने...'' वह फिर हाँफा।
''
काम से आया था...'' मैंने उसे बता दिया।
''
बिजनेस...'' हाँफना बदस्तूर था।
''
नहीं, पर्सनल काम था। भिवंडी जाऊँगा।''
फिर वह बैठा-बैठा तब तक हाँफता रहा जब तक केदार सामने आकर नहीं खड़ा हुआ। उसे देखते ही सिंधी हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ। मुझे भी उलझन हो रही थी। मैं गिलास खत्म करके फौरन केदार के पास आ गया। हम तीनों बीच वाले बड़े कमरे में आ गए थे। केदार मेरी बीयर के पैसे दे ही रहा था कि बगल का दरवाज़ा खुला। मैंने इतना ही देखा कि एक औरत के हाथ ने केदार को उसका कन्घा और चाबियों का गुच्छा दिया और उस हाँफते हुए सिंधी के साथ मुझे खड़ा देखकर पूछा ''और है कोई?''
मैंने पलटकर देखा दरवाजे की चौखट पर हाथ रखे पेटीकोट और ब्लाउज पहने तुम खड़ी थीं बन्नो! और पूछ रही थीं 'और है कोई?'
हाँ! कोई...कोई और भी था।
एक थरथराते अन्धे क्षण के बाद तुमने भी पहचान लिया था और तब कैसी टेढ़ी मुस्काराहट आयी थी, तुम्हारे होठों पर... जहर बुझी मुस्कारहट। या वही घोर तिरस्कार की मुस्कराहट थी? या सहज... कुछ भी नहीं मालूम।
पता नहीं यह बदला तुम मुझसे ले रही थीं, अपने से, मुनीर से या पाकिस्तान से? मैं सीढ़ियाँ उतर आया था। आगे-आगे मैं था, पीछे-पीछे केदार। मन हुआ था सीढ़ियाँ? चढ़ जाऊँ और तुमसे पूछूँ ''बन्नो! क्या यही होना था? मेरा हश्र यही होना था?''
अब कौन-सा शहर है जिसे छोड़कर मैं भाग जाऊँ? कहाँ-कहाँ भागता रहूँ जहाँ पाकिस्तान न हो। जहाँ मैं पूरा होकर अपनी तमाम हसरतों और एहसासों को लेकर जी सकूँ।
बन्नो! हर जगह पाकिस्तान है जो मुझे-तुम्हें आहत करता है, पीटता है। लगातार पीटता और जलील करता चला जा रहा है। 

Saturday, 23 January 2016

टैगोर की कहानी - काबुलीवाला

 काबुलीवाला

- रवीन्द्रनाथ टैगोर

       मेरी पाँच वर्ष की छोटी लड़की मिनी से पल भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ एक ही वर्ष लगाया होगा। उसके बाद से जितनी देर तक सो नहीं पाती है, उस समय का एक पल भी वह चुप्पी में नहीं खोती। उसकी माता बहुधा डांट-फटकारकर उसकी चलती हुई जबान बन्द कर देती है; किन्तु मुझसे ऐसा नहीं होता, मिनी का मौन मुझे ऐसा अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है कि मुझसे वह अधिक देर तक सहा नहीं जाता और यही कारण है कि मेरे साथ उसके भावों का आदान-प्रदान कुछ अधिक उत्साह के साथ होता रहता है।
    सवेरे मैंने अपने उपन्यास के सत्रहवें अध्‍याय में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना आरम्भ कर दिया- ''बाबूजी! रामदयाल दरबान कल 'काक' को कौआ कहता था। वह कुछ जानता ही नहीं, न बाबूजी?''
    विश्व की भाषाओं की विभिन्नता के विषय में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया- ''बाबूजी! भोला कहता था आकाश मुँह से पानी फेंकता है, इसी से बरसा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ-मूठ कहता है न? खाली बक-बक किया करता है, दिन-रात बकता रहता है।''
    इस विषय में मेरी राय की तनिक भी राह न देख करके, चट से धीमे स्वर में एक जटिल प्रश्न कर बैठी, बाबूजी, माँ तुम्हारी कौन लगती है?''
    मन-ही-मन में मैंने कहा सालीऔर फिर बोला- ''मिनी, तू जा, भोला के साथ खेल, मुझे अभी काम है, अच्छा।''
     तब उसने मेरी मेज के पार्श्व में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटने और हाथों को हिला-हिलाकर बड़ी शीघ्रता से मुँह चलाकर 'अटकन-बटकन दही चटाके' कहना आरम्भ कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के अध्‍याय में प्रतापसिंह उस समय कंचनमाला को लेकर रात्रि के प्रगाढ़ अन्धकार में बन्दीगृह के ऊँचे झरोखे से नीचे कलकल करती हुई सरिता में कूद रहे थे।
    मेरा घर सड़क के किनारे पर था, सहसा मिनी अपने अटकन-बटकन को छोड़कर कमरे की खिड़की के पास दौड़ गई, और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ''काबुल वाला, ओ काबुल वाला।''
   

        मैले-कुचैले ढीले कपड़े पहने, सिर पर कुल्ला रखे, उस पर साफा बाँधे कन्धे पर सूखे फलों की मैली झोली लटकाए, हाथ में चमन के अंगूरों की कुछ पिटारियाँ लिए, एक लम्बा-तगड़ा-सा काबुली मन्द चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देखकर मेरी छोटी बेटी के हृदय में कैसे भाव उदय हुए वह बताना असम्भव है। उसने जोरों से पुकारना शुरू किया। मैंने सोचा, अभी झोली कन्धे पर डाले, सिर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्रहवाँ अध्‍याय आज अधूरा रह जाएगा।
    किन्तु मिनी के चिल्लाने पर ज्यों ही काबुली ने हँसते हुए उसकी ओर मुँह फेरा और घर की ओर बढ़ने लगा; त्यों ही मिनी भय खाकर भीतर भाग गई। फिर उसका पता ही नहीं लगा कि कहाँ छिप गई? उसके छोटे से मन में वह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मैली-कुचैली झोली के अन्दर ढूँढने पर उस जैसी और भी जीती-जागती बच्ची निकल सकती है।

    इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए मुझे हाथ उठाकर अभिवादन किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा, वास्तव में प्रताप सिंह और कंचनमाला की दशा अत्यन्त संकटापन्न है, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।
    कुछ सौदा खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप-शप होने लगी।
    अन्त में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली-जुली भाषा में पूछा- ''बाबूजी, आपकी बच्ची कहाँ गई?''

    मैंने मिनी के मन से व्यर्थ का भय दूर करने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल लगकर काबुली के मुख और झोली की ओर सन्देहात्मक दृष्टि डालती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली में से किसमिस और खुबानी निकालकर देनी चाहीं, पर उसने न लीं, और दुगुने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस प्रकार हुआ।
    इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे मैं किसी आवश्यक कार्यवश बाहर जा रहा था? देखूँ तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बेंच पर बैठी हुई काबुली से हँस-हँसकर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के समीप बैठा-बैठा मुस्कराता हुआ, उन्हें ध्यान से सुन रहा है और बीच-बीच में अपनी राय मिली-जुली भाषा में व्यक्त करता जाता है। मिनी को अपने पाँच वर्ष के जीवन में, बाबूजी के सिवा, ऐसा धैर्य वाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। देखा तो, उसका फिराक का अग्रभाग बादाम-किसमिस से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा- ''इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना?'' कहकर कुर्ते की जेब में से एक अठन्नी निकालकर उसे दी। उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली?
    कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूँ तो उस अठन्नी ने बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया है।
    मिनी की माँ एक सफेद चमकीला गोलाकार पदार्थ हाथ में लिए डांट-डपटकर मिनी से पूछ रही थी- ''तूने यह अठन्नी पाई कहाँ से, बता?''
    मिनी ने कहा- ''काबुल वाले ने दी है।''
    ''काबुल वाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?''
    मिनी ने रोने का उपक्रम करते हुए कहा- ''मैंने माँगी नहीं थी, उसने आप ही दी है।''
    मैंने जाकर मिनी की उस अकस्मात मुसीबत से रक्षा की, और उसे बाहर ले आया।
    मालूम हुआ कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही भेंट थी, सो बात नहीं। इस दौरान में वह रोज आता रहा है और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे से हृदय पर बहुत अधिकार कर लिया है।
    देखा कि इस नई मित्रता में बंधी हुई बातें और हँसी ही प्रचलित है। जैसे मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हँसती हुई पूछती- ''काबुल वाला और काबुल वाला, तुम्हारी झोली के भीतर क्या है? काबुली जिसका नाम रहमत था, एक अनावश्यक चन्द्र-बिन्दु जोड़कर मुस्कराता हुआ उत्तर देता- ''हाँ बिटिया

उसके परिहास का रहस्य क्या है, यह तो नहीं कहा जा सकता; फिर भी इन नए मित्रों को इससे तनिक विशेष खेल-सा प्रतीत होता है और जाड़े के प्रभात में एक सयाने और एक बच्ची की सरल हँसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।
    उन दोनों मित्रों में और भी एक-आध बात प्रचलित थी। रहमत मिनी से कहता- ''तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?''
    हमारे देश की लड़कियाँ जन्म से ही 'ससुराल' शब्द से परिचित रहती हैं; किन्तु हम लोग तनिक कुछ नई रोशनी के होने के कारण तनिक-सी बच्ची को ससुराल के विषय में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, अत: रहमत का अनुरोध वह स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाती थी; इस पर भी किसी बात का उत्तर दिए बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल ही विरुद्ध था। उल्टे वह रहमत से ही पूछती-''तुम ससुराल जाओगे?''
    रहमत काल्पनिक श्वसुर के लिए अपना जबर्दस्त घूँसा तानकर कहता- ''हम ससुर को मारेगा।''
    सुनकर मिनी 'ससुर' नामक किसी अनजाने जीव की दुरावस्था की कल्पना करके खूब हँसती।
    देखते-देखते जाड़े की सुहावनी ऋतु आ गई। पूर्व युग में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच करते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया, शायद इसीलिए मेरा मन ब्रह्माण्ड में घूमा करता है। यानी, मैं अपने घर में ही चिर प्रवासी हूँ, बाहरी ब्रह्माण्ड के लिए मेरा मन सर्वदा आतुर रहता है। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन वहीं की उड़ान लगाने लगता है। इसी प्रकार किसी विदेशी को देखते ही तत्काल मेरा मन सरिता-पर्वत-बीहड़ वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता है और एक उल्लासपूर्ण स्वतंत्र जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती है।
    इधर देखा तो मैं ऐसी प्रकृति का प्राणी हूँ, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता है। यही कारण है कि सवेरे के समय अपने छोटे से कमरे में मेज के सामने बैठकर उस काबुली से गप-शप लड़ाकर बहुत कुछ भ्रमण का काम निकाल लिया करता हूँ। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों ओर ऊबड़खाबड़, लाल-लाल ऊँचे दुर्गम पर्वत हैं और रेगिस्तानी मार्ग, उन पर लदे हुए ऊँटों की कतार जा रही है। ऊँचे-ऊँचे साफे बाँधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊँट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल ही जा रहे हैं। किन्हीं के हाथों में बरछा है, तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामे हुए है। बादलों की भयानक गर्जन के स्वर में काबुली लोग अपने मिली-जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहे हैं।
    मिनी की माँ बड़ी वहमी तबीयत की है। राह में किसी प्रकार का शोर-गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं? उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर-डकैत, मस्त, शराबी, साँप, बाघ, रोगों, मलेरिया, तिलचट्टे और अंग्रेजों से भरी पड़ी है। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।
    रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर विशेष नजर रखने के लिए मुझसे बार-बार अनुरोध करती रहती। जब मैं उसके शक को परिहास के आवरण से ढकना चाहता तो मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठती- ''क्या कभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं बिकते? क्या एक लम्बे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे को उठा ले जाना असम्भव है?'' इत्यादि।
    मुझे मानना पड़ता कि यह बात नितान्त असम्भव हो, सो बात नहीं पर भरोसे के काबिल नहीं। भरोसा करने की शक्ति सब में समान नहीं होती, अत: मिनी की माँ के मन में भय ही रह गया लेकिन केवल इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर सका।
    हर वर्ष रहमत माघ मास में लगभग अपने देश लौट जाता है। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया-पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता है। उसे घर-घर, दुकान-दुकान घूमना पड़ता है, लेकिन फिर भी मिनी से उसकी भेंट एक बार अवश्य हो जाती है। देखने में तो ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों के मध्य किसी षडयंत्र का श्रीगणेश हो रहा है। जिस दिन वह सेवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखूँ तो वह संध्या को हाजिर है। अँधेरे में घर के कोने में उस ढीले-ढाले जामा-पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक भय-सा पैदा हो जाता है।
    लेकिन, जब देखता हूँ कि मिनी 'ओ काबुल वाला' पुकारती हुई हँसती-हँसती दौड़ी आती है और दो भिन्न-भिन्न आयु के असम मित्रों में वही पुराना हास-परिहास चलने लगता है, तब मेरा सारा हृदय खुशी से नाच उठता है।
    एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा हुआ नई पुस्तक के प्रूफ देख रहा था। जाड़ा, विदा होने से पूर्व, आज दो-तीन दिन खूब जोरों से अपना प्रकोप दिखा रहा है। जिधर देखो, उधर उस जाड़े की ही चर्चा है। ऐसे जाड़े-पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी प्रतीत होने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे ऊषाचरण सवेरे की सैर करके घर की ओर लौट रहे थे। ठीक इस समय राह में एक बड़े जोर का शोर सुनाई दिया।
    देखूँ तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। उनके पीछे बहुत से तमाशाही बच्चों का झुण्ड चला आ रहा है। रहमत के ढीले-ढाले कुर्ते पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैंने द्वार से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया, पूछा- ''क्या बात है?''
    कुछ सिपाही से और कुछ रहमत से सुना कि हमारे एक पड़ोसी ने रहमत से रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपये उसकी ओर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने साफ इन्कार कर दिया। बस इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने छुरा निकालकर घोंप दिया।
    रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अपशब्द सुना रहा था। इतने में ''काबुल वाला! ओ काबुल वाला!'' पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।
    रहमत का चेहरा क्षण-भर में कौतुक हास्य से चमक उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी। अत: झोली के बारे में दोनों मित्रों की अभ्यस्त आलोचना न चल सकी। मिनी ने आते के साथ ही उसने पूछा- ''तुम ससुराल जाओगे।''
    रहमत ने प्रफुल्लित मन से कहा- ''हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।''
    रहमत ताड़ गया कि उसका यह जवाब मिनी के चेहरे पर हँसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा- ''ससुर को मारता, पर क्या करूँ, हाथ बंधे हुए हैं।''
    छुरा चलाने के जुर्म में रहमत को कई वर्ष का कारावास मिला।
    रहमत का ध्यान धीरे-धीरे मन से बिल्कुल उतर गया। हम लोग अब अपने घर में बैठकर सदा के अभ्यस्त होने के कारण, नित्य के काम-धन्धों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे। तभी एक स्वाधीन पर्वतों पर घूमने वाला इन्सान कारागार की प्राचीरों के अन्दर कैसे वर्ष पर वर्ष काट रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी उठी ही नहीं।
    और चंचल मिनी का आचरण तो और भी लज्जाप्रद था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे-जैसे उसकी वयोवृध्दि होने लगी वैसे-वैसे सखा के बदले एक के बाद एक उसकी सखियाँ जुटने लगीं और तो क्या, अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया है।
    कितने ही वर्ष बीत गए? वर्षों बाद आज फिर एक शरद ऋतु आई है। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसका विवाह हो जाएगा। कैलाशवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की आनन्दमयी मिनी भी माँ-बाप के घर में अँधेरा करके ससुराल चली जाएगी।
    सवेरे दिवाकर बड़ी सज-धज के साथ निकले। वर्षों के बाद शरद ऋतु की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही है। कलकत्ता की संकरी गलियों से परस्पर सटे हुए पुराने ईटझर गन्दे घरों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने एक प्रकार का अनोखा सौन्दर्य बिखेर दिया है।
    हमारे घर पर दिवाकर के आगमन से पूर्व ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे यह मेरे हृदय की धड़कनों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी विच्छेद पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्माण्ड में फैला रही है। मेरी मिनी का आज विवाह है।
    सवेरे से घर बवंडर बना हुआ है। हर समय आने-जाने वालों का तांता बंधा हुआ है। आँगन में बांसों का मंडप बनाया जा रहा है। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़-फानूस लटकाए जा रहे हैं, और उनकी टक-टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही है। 'चलो रे', 'जल्दी करो', 'इधर आओ' की तो कोई गिनती ही नहीं है।
    मैं अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में बैठा हुआ हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और अभिवादन करके खड़ा हो गया।
    पहले तो मैं उसे पहचान न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे-लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य ज्योति ही थी। अन्त में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि वह रहमत है।
    मैंने पूछा- ''क्यों रहमत, कब आए?''
    उसने कहा- ''कल शाम को जेल से छूटा हूँ।''
    सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को मैंने कभी आँखों से नहीं देखा था, उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया? मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहाँ से टल जाए तो अच्छा हो।
    मैंने उससे कहा- ''आज हमारे घर में कुछ आवश्यक काम है, सो आज मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।''
    मेरी बात सुनकर वह उसी क्षण जाने को तैयार हो गया। पर द्वार के पास आकर कुछ इधर-उधर देखकर बोला- ''क्या, बच्ची को तनिक नहीं देख सकता?''
    शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब तक वैसी ही बच्ची बनी है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले की तरह 'काबुल वाला, ओ काबुल वाला' पुकारती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों के पहले हास-परिहास में किसी प्रकार की रुकावट न होगी? यहाँ तक कि पहले की मित्रता की याद करके वह एक पेटी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ी-सी किसमिस और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से माँग-तांगकर लेता आया था? उसकी पहले की मैली-कुचैली झोली आज उसके पास न थी।
    मैंने कहा- ''आज घर में बहुत काम है। सो किसी से भेंट न हो सकेगी?''
    मेरा उत्तर सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया। उसी मुद्रा में उसने एक बार मेरे मुख की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। फिर अभिवादन करके दरवाजे के बाहर निकल गया।
    मेरे हृदय में जाने कैसी एक वेदना-सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊँ, इतने में देखा तो वह स्वयं ही आ रहा है।
    वह पास आकर बोला- ''ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।''
    मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा-''आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।'' तनिक रुककर फिर बोला- ''बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।''
    कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।
    देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे से हाथ के छोटे से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं हाथ में थोड़ी सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता की गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।
   
        देखकर मेरी आंखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्चवंश का रईस हूँ। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
    उस अवस्था में देखकर रहमत काबुल पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हँसते हुए बोला- ''लल्ली! सास के घर जा रही है क्या?''
    मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी, अत: अब उससे पहले की तरह उत्तर देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे लज्जा के उसके कपोल लाल-सुर्ख हो उठे। उसने मुँह को फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जबकि रहमत के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन मे एक पीड़ा की लहर दौड़ गई।
    मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी साँस लेकर रहमत फर्श पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी, और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी पड़ेगी। सम्भवत: वह उसे पहले जैसी नहीं पाएगा।
    इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की स्निग्ध सूर्य किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कलकत्ता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु-पर्वत का दृश्य देखने लगा।
    मैंने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और कहा, ''रहमत, तुम देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी सुख पाएगी।''   

    रहमत को रुपये देने के बाद विवाह के हिसाब में से मुझे उत्सव-समारोह के दो-एक अंग छांटकर काट देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका, अंग्रेजी बाजा भी नहीं आया, घर में औरतें बड़ी बिगड़ने लगीं, सब-कुछ हुआ, फिर भी मेरा विचार है, कि आज एक अपूर्व ज्योत्स्ना से हमारा शुभ समारोह उज्ज्वल हो उठा।