- सुरजीत सिंह
यह विवशता कहिए, शौक या फिर समकालीन मुद्दों पर एक सजग, जिम्मेदारी भाव से त्वरित दखल देने की स्वत: स्फूर्त
प्रेरणा, किसी और विधा में
मुझे खुद को व्यक्त करना आता नहीं है। जो लिखता हूँ, जिस तरह लिखता हूँ, वह व्यंग्य के निकट है, मैं इसे संयोग मात्र ही कहूँगा वरना व्यंग्य की
पाठशाला का मैं रेगुलर विद्यार्थी कभी नहीं रहा, न बचपन से ऐसे अकादमिक संस्कार
मिले कि स्वाभाविक रूप से व्यंग्य जैसी विधा को आत्मसात कर उसकी ओर प्रवृत्त हो
पाता। यही वजह रही कि शुरुआती दौर में व्यंग्य लेखन अनायास ही शुरू हुआ। इसका
मुहावरा मैंने कभी कहीं से सीखा नहीं। स्कूल-कॉलेज के दिनों में जाएँ तो यह जरूर
रहा कि पाठ्य-पुस्तकों में परसाई या शरद जोशी की रचनाएँ पढ़ते थे, तो मुझे उनमें सर्वाधिक रस आता था।
शायद पाठ्य-पुस्तकों
में पढ़ी गई परसाई की ठिठुरता गणतंत्र, भोलाराम का जीव जैसी व्यंग्य रचनाओं ने ही मेरे अंदर कहीं ऐसे बीज वपन किए कि
आगे चलकर शब्द-विचार व्यंग्य रूप से पल्लवित-पुष्पित हुए। फिर मेरे स्वभावगत आग्रह
से भी इस मत को धार मिली कि लेखक बदलाव का सबसे बड़ा वाहक हो सकता है। खासकर
व्यंग्य तो अपनी मारक क्षमता के कारण व्यवस्था के फोड़े से मवाद निकालने का काम
करता है। मेरी भी इच्छा थी कि ऐसी कलम का धनी बनूँ जो विसंगतियों की शल्य क्रिया
कर सके।
अगर यही
अंत:प्रेरणा है तो मन का आदेश मान पत्रकारिता में दाखिल हो गया। इसी के साथ
पत्र-पत्रिकाओं में छिट-पुट व्यंग्य लिखने लगा। पहला व्यंग्य दैनिक नवज्योति में
छपा था, वह खुशी अवर्णनीय
है। वह रचना लिखने के पीछे भी कारण यह था कि अखबार के कॉलम में मैंने किसी का
व्यंग्य पढ़ा, जिसे पढ़कर तुरन्त
लगा, अरे, ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूँ। बस भेज दी रचना। तीसरे
ही दिन छप गई। उस दिन मैं राजस्थान यूनिवर्सिटी की लायब्रेरी से साइकिल पर उड़ता
हुआ घर आया था। आते समय पाव भर जलेबी लेकर आया। वह हमारा सेलिब्रेशन था, जिसका अहसास आज भी नहीं भूलते। रेस्पॉन्स मिला, तो थोड़ा ज्यादा लिखने लगा। छपने में आनन्द आने लगा।
इसके बाद तो ऐसा छपास रोग लगा कि प्रतिदिन ही लिखने की कोशिश करने लगा। जिस किसी
दिन नहीं छपता, मायूसी छा जाती।
छप जाती, उस दिन जोश से भर
जाता। इससे जो पारिश्रमिक मिलता, उससे पढ़ाई का खर्चा चल जाता। लगभग दो साल तक मैंने भाई-बहनों के साथ पढ़ाई का
खर्च लेखन से निकाला। इसके बाद राजस्थान पत्रिका में पत्रकार के रूप में नौकरी
शुरू हो गई। बस, महज दो साल के
धुआंधार व्यंग्य लेखन पर पेशेगत बाध्यताओं के कारण विराम लग गया। इस बीच दस साल से
भी ज्यादा का ब्रेक रहा। पेशगत बाध्यताओं के कारण लाख चाहने के बाद भी लिख नहीं पा
रहा था। रचनात्मकता खत्म हो रही थी। इसके बाद वर्ष 2014 के आरम्भ में हिम्मत कर फिर नियमित व्यंग्य लेखन की
शुरुआत की। शुरुआत करते ही फिर वही प्रतिदिन कॉलम लिखने का जुनून। रोज छपे बिना
चैन नहीं।
इस मन:स्थिति से
बाहर निकाला फेसबुक पर मिले व्यंग्यकार संतोष त्रिवेदी जैसे अग्रज, मित्र ने। वे अक्सर टोकते थे कि छपने का मोह त्यागो, अखबारी कॉलम से बाहर निकलो और लम्बी रचनाएँ लिखो। अब
धीरे-धीरे जाकर इस मन:स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा हूँ। सोचता हूँ, काश! मुझे बचपन से संतोष त्रिवेदी जैसा कोई गुरु मिला
होता, तो हो सकता है वह
सब नहीं होता, जो मार्गदर्शन के
अभाव में हुआ। ठोकरें खाकर सीखना अच्छी बात है, लेकिन निरन्तर ठोकरें भी नहीं खाई जा सकतीं, समय का भी अपना महत्व है।
यह मेरे साथ अजीब
ही हुआ कि मुझे व्यंग्य लेखन के कहीं से संस्कार नहीं मिले। इसके पीछे संगत, सान्निध्य, सहयोग और साथ का नितांत अभाव रहा इसलिए अनगढ़ तरीके से लेखन किया। यह सोचकर आज
लज्जा आती है कि मैंने महान व्यंग्यकारों को पढ़ा बाद में, लिखना पहले ही शुरू कर दिया। दो साल अखबारों में
भरपूर लिख चुकने के बाद तक व्यंग्य की एक भी किताब पढ़ी नहीं थी। जब परसाई, शरद जोशी को पढऩा शुरू किया, तो लगा, लेखन ऐसा होना चाहिए। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि मेरी एक समस्या रही
है, मैं जिसे भी
पढ़ता और प्रभावित होता, उसी की शैली में लिखने का मन करता। शरद जोशी की व्यंग्य शैली तो ऐसी भाई कि एक
समय उनकी शैली की नकल करने की कोशिश करता था। इसका नुकसान यह हुआ कि आज तक मेरी
स्वयं की कोई स्पष्ट शैली विकसित नहीं हो पाई है। अगर मुझ पर कोई अपराध कायम होता
है, तो हाँ, मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं प्रेरणा चोर हूँ, दूसरों के लिखे से भी प्रेरणा चुराता हूँ।
मेरा प्रिय विषय
राजनीति है। राजनीति ही ऐसा व्यंग्य उर्वर प्रदेश है, जहाँ रोज विसंगतियाँ उपजती हैं। उनकी शल्य क्रिया
व्यंग्यकार का काम है। यही वजह है कि आज राजनीति पर व्यंग्य लेखन का ज्यादा फोकस
है। मैंने अभी-अभी व्यंग्य की पाठशाला में रेगुलर विद्यार्थी के रूप में प्रवेश
लिया है, जहाँ व्यंग्य का
ककहरा सीखने की कोशिश कर रहा हूँ। हाँ, मुझे सीखने और सलाहें मानने में कोई हर्ज नहीं है, बशर्ते कोई सिखाए, कोई दे!
- सुरजीत सिंह