डॉ अजीत प्रियदर्शी
भूमण्डलीकरण और बाजारवाद के बढ़ते दुष्प्रभावों से भरा यह समय मनुष्यमात्र के लिए गहरे, तनाव, दबाव, निराशा और खीझ से भरा है। कविता के लिए भी समय तनाव, दबाव, प्रतिरोध और असंतोष की अभिव्यक्ति के रूप में दिखाई दे रहा है। पक्षधर और प्रतिबद्ध कवि अपने समय तथा समाज के मनुष्यों की स्थिति, नियति से मुठभेड़ करते हैं फिर उन्हें बदलने के स्वप्न देखते हैं, आकांक्षा करते हैं और बदलाव के स्वप्न, आकांक्षा तथा संकल्प के साथ कविता करते हैं। कविता हमेशा जीवन के सच्चे अनुभवों से पैदा होती है। सच्चे अनुभवों के अभाव में कविता शब्दों का मधुर संसार मात्र रह जाएगी, जिसमें मार्मिकता और हृदयस्पर्शिता नहीं होगी। जीवन की खरी व सच्ची अनुभूतियों से लैश कविता में ही विश्वसनीयता और आत्मीयता का सहज संसार विद्यमान होगा।
बृजेश नीरज समकालीन कविता के पाठकों के बीच सुपरिचित नाम नहीं है। ‘कोहरा सूरज धूप’ उनका पहला काव्य संग्रह है, जो अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद से छपा है। इस संग्रह में कुल साठ कविताएँ संकलित हैं। संग्रह की अधिकांश कविताएँ आकार-प्रकार में छोटी हैं लेकिन वे अनुभूति व अनुचिंतन से भरी कविताएँ हैं। इस संग्रह की अधिकांश कविताएँ यथार्थ को पूरी गम्भीरता से परखती हैं और सच को सच की तरह कहने का प्रयास करती हैं। उनकी कविताएँ मात्र अनुभूतियों, भावों की अभव्यक्ति नहीं हैं, बल्कि उनके विचारों और पक्षधरता का प्रकटीकरण भी है। कवि पाता है कि मनुष्य के लोभ का विकराल रूप अब प्रकृति का, नदी का ऐसा कृतघ्न दोहन करने लगा है कि नदी की ‘धारा ठिठकी सी’ है। ‘धारा ठिठकी सी’ कविता में कवि रेखांकित करता है मैल से भरी, सहमी, सिकुडी धारा पर जब प्रातःकालीन सूर्य की किरणें पडती हैं तब- ‘उजास नहीं फैलातीं/ खो जाती हैं/ स्याह लहरों में’।
बृजेश नीरज की छोटी कविताएँ अधिक भावप्रवण और विचार सघन हैं। ऐसी कविताओं में मुख्यतः अनुचिंतन या अनुभूति की प्रधानता होती है। छोटी कविताओं को पढ़कर कवि की भावना के साथ-साथ उनके विचार, पक्षधरता का स्पष्ट पता चलता है। ‘विरोध’ कविता की ये पंक्तियाँ चित्रमयता, बिम्वमयता और अनुभूतिपरकता के साथ मार्मिक असर छोड़ती हैं- ”वातावरण में घुले नारे/ खण्डर में पैदा हुई अनुगूँज की तरह/ कम्पन पैदा करते हैं/ सर्द हवाएँ/ काँटों की तरह चुभती हैं/ अँधेरा गहराता जा रहा है“। मनुष्य विरोधी सत्ता के ‘विरोध’ में उठे नारे व्यक्ति के मनःमस्तिष्क में कम्पन पैदा करते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह सर्द हवाएँ काँटों की तरह चुभती हैं। कवि ने संकेत किया है कि ‘अँधेरा गहराता जा रहा है’ और ऐसे संकटपूर्ण समय में ‘विरोध’ की सार्थकता स्वंय सिद्ध है।
वर्तमान समय की सामाजिक-आर्थिक विषमता और उनसे पैदा हुई विसंगति, विद्रूपता और त्रासदी का चित्रण इस संग्रह की कविताओं में है। वर्तमान के कटु यथार्थ को, जीवन यथार्थ की विडम्बना को कवि ने कई बार मार्मिक व्यंग्य के सहारे उकेरा है। ‘आजाद हैं’ कविता की कुछ पंक्तियाँ इसकी गवाह हैं- ‘पेड़ की फुनगी पर टॅगे/ खजूर/ उसकी परछाई में/ खेलते बच्चे/ सूखे खेत/ कराहती नदी/ बढ़ता बंजर/ लोकतंत्र के गुम्बद के सामने/ खम्बे पर मुँह लटकाए बल्ब’।
कई बार तकलीफदेह जीवन दृश्यों को देखकर उनका संवेदनशील मन भावुक हो जाता है। असरदार चित्रों- बिम्बों के सहारे कवि ने वर्तमान समय के संकटों और संवेदनहीन सत्ता से उपजी त्रासदी को मार्मिक ढंग से बयान कर दिया है। जीवन संघर्ष की आँच में तपते-जूझते और भूख से छटपटाते, दलित ‘बचपन’ को देखकर कवि की भावना उमड़ पड़ती है: ”पैसे के लिए हाथ फैलाते ही/ बिखर गया बाल पिण्ड/ सूखे होठों पर/ किसी उम्मीद की फुसफुसाहट/ आँखों में/ भूख की छटपटाहट/ व्यवस्था के पहियों तले/ दमित बचपन/ बेचैन था वयस्क हो जाने को“। यहाँ कवि की कोरी भावुकता ही दर्ज नहीं हुई बल्कि दुखपूर्ण बाह्य जीवन पर उनकी संवेदननात्मक व मानसिक प्रतिक्रिया भी दर्ज हुई है। मई-जून की प्रचण्ड गर्मीं में जबकि लोग घरों में दुबके हैं, कवि देखता है कि- ‘एक आदमी/ सिर पर ईंटें ढोता/ कहीं पिघला न दे उसे भी/ यह गर्मी/ लेकिन शायद/ उसकी आँतों का तापमान/ बाहर के तापमान से अधिक है’। यहाँ भावना, संवेदना और विचार की घुलावट है तथा निजी अनुभूति का ताप भी है। तभी तो वे अंतर्जगत में मौजूद ‘तीन शब्द’ से खुद को दहकता हुआ पाते हैं: आदमी, पेट, भूख/ जाने कब तक लदे रहेंगे/ मेरे कंधों पर“।
बृजेश नीरज असहज यथार्थ से बचते नहीं है बल्कि उससे मुठभेड़ करते हैं। उनकी कविता यथार्थ से मुठभेड़ की कविता है। वह देखते हैं कि अक्षर, शब्द और भाषा का मनमाना प्रयोग हो रहा है और उन्हें स्वार्थी मठाधीश अपने निजी स्वार्थ पूर्ति का साधन बना रहें हैं- ”अक्षर रंग बदल रहे हैं/ कथाएँ अर्थ/ नई परिभाषाएँ गढ़ी जा रही हैं/ नए मठ आकार ले रहें है“। लेकिन कवि ने यहाँ इशारा तो किया है पर खुलासा नहीं किया है कि ऐसे लोग कौन हैं? उनकी शक्लें नहीं उभर पाई हैं यहाँ। उनकी कविता में यथार्थ की चीड़फाड़ कम है। कई बार यथार्थ का सरलीकरण की प्रवृत्ति कवि में दिखाई देती है। वह यथार्थ की भीतरी तहों को नहीं खोलता: ”कुछ है जो/ कहने से रह जाता है हर बार“।
शब्द और भाषा की ताकत और कमजोरी का गम्भीर एहसास कवि को है। वह पाता है कि- ”चीथडों से झाँकते/ शब्द बेचैन हैं“ कविता के वर्तमान संकट का अनुभव भी कवि निरंतर करता है। वह पाता है कि ”कविता कराह रही है/ गली के नुक्कड़ पर पड़ी/ तेज रफ्तार जिंदगी/ रौंदकर चली गई उसे“। लेकिन जिंदगी में ‘उम्मीद का दामन मजबूती से थामने वाला कवि, कविता के प्रति भी नाउम्मीद नहीं है। लेकिन ‘अँधेरे’ को ‘उजाला’ कहना सच्चाई से मुकर जाना है। यह बात वह जानता है इसीलिए वह सच्चाई बयान करना चाहता है, जिससे जीवन और कविता में दूरी न पैदा हो जाए। उसकी स्वीकोक्ति है: ”अब, मैं चाहता हूँ/ लिखूँ ‘लालटेन’/ लेकिन लिखने के लिए/ खुद लालटेन होना होगा/ पर मैं तो अँधेरे में हूँ/ पिघलता अँधेरा“। इस संग्रह में एक कविता है- ‘उम्मीद’। इस कविता की पंक्तियाँ हैं- ”हालांकि अँधेरे में हूँ/ लेकिन कुछ रोशनी आ रही है मुझ तक/ सुबह होने को है“। ऐसी ही एक कविता है ‘आस’। जिंदगी के रास्ते में गहराते कोहरे के बीच चलना है। कवि यह तय कर चुका है क्योंकि जीवन संघर्ष में वह देख चुका है कि ‘पत्तों के ढेर के नीचे/ चीटियाँ रास्ता ढूँढ रही हैं’।
बृजेश नीरज की कविता जीवन के जीवंत संघर्षों और कार्य-व्यापारों से संयुक्त है। उनकी कविता आसपास के जीवन और घर परिवारों से जुड़ी हुई है। उनकी कविता में आत्मपरकता के अंतर्गत वैयक्तिक अनुभूतियों का जीवन संसार मौजूद है। उसके दुख- शोक में विश्व-व्यथा का बीज मौजूद है। विश्व-व्यथा में कवि के निजी दुख-शोक की अनुभूतियों की छाप है। उनके यहाँ आत्मीयतापूर्ण पारिवारिक जीवन के स्नेह-माधुप और जीवन-संघर्ष के विविध रंग मौजूद हैं। वे कई कविताओं में पारिवारिक कर्तव्याभिमुख भावनाओं और दाम्पत्य प्रेम की भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं। ‘तुम्हारी आँखों में’, तुम्हारा स्पर्श, ‘विछोह(1,2) जैसी कविताओं में दाम्पत्य प्रेम और लगाव की अभिव्यक्ति हुई है। ‘तुम्हारी आँखों में’, कविता की ये पंक्तियाँ सघन दाम्पत्य प्रेम की साक्षी हैं: ”तुम हमेशा ही/ एक उम्मीद थी/ मैं ही आँख मूँदे रहा/ अपने सपनों से/ जो हमेशा तैरते रहे/ तुम्हारी आँखों में’।
बृजेश नीरज भी कविता में गाँव और गाँव के लोगों, अम्मा, बचपन के मित्र तथा सुख-दुख की अर्धागिनी की आत्मीय और जीवंत उपस्थिति है। ‘अपना गाँव’ कविता में वे स्मृतियों में जीवंत गाँव को याद करते हैं। वे याद करते हैं गाँव के बाग, नदी, हथपुइया रोटी पर नून-तेल से चुपड़कर खिलाने वाली बड़ी अम्मा और गुल्ली डण्डे के खेल को। ‘मित्र के नाम’ कविता में मित्र के लिए हमेशा तत्पर हृदय की मार्मिक अभिव्यक्ति है। बचपन के मित्र से बहुत दिनों बाद मिलने और उसके साथ होने वाले आत्मीय संवाद व आत्मीयता की संवेदनशील अभिव्यक्ति ‘बहुत दिन बाद आए’ कविता में हुई है। आत्मीय बातचीत की शैली में गाँव-घर-खेत और गाँव के लोगों के बारे में बताने वाली इस कविता की ‘सहजता’ पुरअसर है। यह कविता पर्याप्त दिलचस्प और पठनीय है।
बृजेश नीरज की कविताओं में उनकी धार्मिक आस्था, भाग्यवाद और धार्मिक मिथकों-चरित्रों की अभिव्यक्ति हुई है। ‘माँ शब्द दो’ कविता में वे कहते हैं ‘जन्मा अजन्मा के भेद से परे एक सत्य माँ!“ ‘प्रातः’ कविता में प्रातःकाल के वर्णन में ‘अक्षत, ‘कुमकुम’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल एक धार्मिक वातावरण खड़ा करता है। ‘धारा ठिठकी सी’ कविता में वे मैली गंगा से कहलाते हैं- ‘हे भागीरथ’ ! तुम मुझे कहाँ ले आए?’ ‘उस पार’ कविता में वे अदृश्य रहस्थ के प्रति जिज्ञासा की अभिव्यक्ति करते हैं और मिथकीय पात्र ‘गरूण’ भी अवतारणा करते हैं। ‘मैं क्या हूँ’ कविता में जगत और आत्म के प्रति अदृश्य, अज्ञात के प्रति जिज्ञासा भाव में उनकी आध्यात्मिक भावना का दर्शन होला है। वर्तमाल जीवन के संकट को मिथक व मिथकीय पात्रों और मिथकीय प्रतीकों द्वारा अभिव्यक्त करने की काव्य प्रवृत्ति ‘राम तुम कहाँ हो’ कविता में बखूबी देखी जा सकती है। जिंदगी कविता में भाग्यवाद की अभिव्यक्ति यों हुई है: ‘जिंदगी हर बार/ दूर छिटक जाती है/ हर बार ढूँढता हूँ/ उसे फिर से/ हाथ की लकीरों में“।
बृजेश नीरज की कविता का गठन अनुभूति, संवेदना और विचारों के उचित सामंजस्य से मानसिक प्रक्रिया में होता हैं। उनकी कविता में उनकी सफगोई और संवेदनशील मन की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी कविता में बिम्बों, मिथकों व प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है, कहीं सटीक और सृजनात्मक तो कहीं लापरवाहीपूर्वक। कविताओं में व्यतिरेक या तार्किक अन्विति का अभाव, अनुभूति की सरलता/ सपाटता/ और एकरेखीय, अनुभूतियों का सरलीकरण, धनीभूत भावना का बिखराव, निपट गद्यात्मकता, अतिभावुकता (सेंटिमेंटलिज्म), विवरणात्मकता आदि के कारण कविता और अभिव्यक्ति प्रभावहीन भी हुई है। इन कमियों के बावजूद उनकी कविता में बोलचाल की भाषा, दिलचस्प बयान, अनुभूति की सच्चाई, भाषिक ऐन्द्रिकता, आत्मीयता, सहजता और भाववेग वर्तमान समय के संकटों को लेकर चिंता और प्रतिबद्धता, विचारों की साफगोई आदि के कारण कई कविताएँ और कवितांश बड़े मार्मिक और प्रभावपूर्ण बन गए हैं। उनकी काव्य भाषा मध्यवर्ग के जीवन-व्यवहार की भाषा है। उनकी कविता एक तरह से संवाद कायम करती है, कभी स्वंय से कभी अन्यों से। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि वे एक संभावनाशील कवि हैं, काव्यक्षमता से परिपूर्ण हैं। आशा है कि आने वाले समय में वे एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में निखरकर सामने आएँगे।
- असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग,
डी.ए.वी. पी.जी. कॉलेज, लखनऊ
ई-मेल- priyadarshiajit7@gmail.com
आदरणीय डॉ अजीत प्रियदर्शी जी, मैंने आपके द्वारा लिखित आदरणीय बृजेश नीरज जी के काव्यसंग्रह "कोहरा सूरज धूप" पर जो समीक्षा पढ़ी तो लगा कि समीक्षक ने सच में कवितावों की गहराई को बड़े संजीदा ढंग से खंगाला है।मैंने भी इस संग्रह को पढ़ा है कविता के आकार प्रकार का भान तब मिटा सा महसूस हुआ जब एक-एक शब्द में मैं सागर जितना व्यास और गहराई देखी । इस क्षेत्र में मेरा अभी शैशव काल चल रहा है अपनी छोटी सी समझ के साथ मैंने भी ये पाया कि जो इस पुस्तक को पढ़ेगा वो विचारशीलता की आद्रता को जरूर महसूसेगा । पुनः आप दोनों को अनेकानेक बधाइयाँ /सादर
ReplyDeleteव्यक्ति की अभिव्यक्ति जब कविता का रूप धारण कर लेती है तो व्यक्ति अर्थात कवि दूध का मक्खन हो जाता है और इस मक्खन से चाय नही बनती। कविता मात्र चाय की चुस्की भर है, जो जीवन में नहीं उतरती बल्कि जीवन के आनंद को जीती है। मैं समझता हूँ कि कवि कविता कहने में सफल तो है किन्तु कविता में मिठास के साथ अदरख कुछ पुरानी होने के कारण आनंद को स्थाई सम्बल नही मिल पाया। इनकी कविताएँ प्रथम दृष्टया तो तीक्ष्ण मारक हैं, पर घाव हल्के ही रह गए. कविता का शीर्षक 'कोहरा सूरज धूप' में व्याकरण के अभाव के कारण संज्ञाएँ बिना अर्थ के अनाथ और असहाय होकर संशय से सिमट गई हैं.
ReplyDeleteआपकी समीक्षा सारगर्भित और समीक्षा की धरातल पर खरी उतरती है। इसके बावजूद भी आपकी पैनी नज़र बृजेश नीरज की कविता लेखन की कलात्मकता व विशेष्य शैली से नहीं जोड़ पायी जिसके कारण समीक्षा केवल भाव प्रणव बन कर रह गयी।
वास्तव में बृजेश नीरज की कवितायेँ लीक से हट कर एक नए पथ का निर्माण कार्य में प्रयत्नशील हैं जो आगे चल कर मील की पत्थर ही साबित होंगी। इन्ही शब्दों के साथ आप दोनों को इस काव्य-संकलन व समीक्षात्मक चर्चा के लिए हार्दिक शुभकामनाएं व हार्दिक बधाई। शुभ शुभ
व्यक्ति की अभिव्यक्ति जब कविता का रूप धारण कर लेती है तो व्यक्ति अर्थात कवि दूध का मक्खन हो जाता है और इस मक्खन से चाय नही बनती। कविता मात्र चाय की चुस्की भर है, जो जीवन में नहीं उतरती बल्कि जीवन के आनंद को जीती है। मैं समझता हूँ कि कवि कविता कहने में सफल तो है किन्तु कविता में मिठास के साथ अदरख कुछ पुरानी होने के कारण आनंद को स्थाई सम्बल नही मिल पाया। इनकी कविताएँ प्रथम दृष्टया तो तीक्ष्ण मारक हैं, पर घाव हल्के ही रह गए. कविता का शीर्षक 'कोहरा सूरज धूप' में व्याकरण के अभाव के कारण संज्ञाएँ बिना अर्थ के अनाथ और असहाय होकर संशय से सिमट गई हैं.
ReplyDeleteआपकी समीक्षा सारगर्भित और समीक्षा की धरातल पर खरी उतरती है। इसके बावजूद भी आपकी पैनी नज़र बृजेश नीरज की कविता लेखन की कलात्मकता व विशेष्य शैली से नहीं जोड़ पायी जिसके कारण समीक्षा केवल भाव प्रणव बन कर रह गयी।
वास्तव में बृजेश नीरज की कवितायेँ लीक से हट कर एक नए पथ का निर्माण कार्य में प्रयत्नशील हैं जो आगे चल कर मील की पत्थर ही साबित होंगी। इन्ही शब्दों के साथ आप दोनों को इस काव्य-संकलन व समीक्षात्मक चर्चा के लिए हार्दिक शुभकामनाएं व हार्दिक बधाई। शुभ शुभ