विश्व मातृ दिवस, रविवार, दिनांक 8 मई 2016 को राज भवन, लखनऊ के सामने
स्थित डिप्लोमा इन्जीनियर्स सभागार में शहर के दो उदीयमान साहित्यिक संगठन ‘लोकोदय
प्रकाशन’ और ‘अमर भारती साहित्य एवं संस्कृति संस्थान’ द्वारा आयोजित ‘समकालीन कविता’ पर केन्द्रित कार्यक्रम साहित्य-सेवियों एवं अनुरागियों को बाँधने में
पूरी तरह सफल रहा।
कार्यक्रम के पहले सत्र में
प्रसिद्ध कवि-चित्रकार कुँवर रवीन्द्र के तूलिका-कर्म, विशेषकर उनके द्वारा बनाए
गए कविता-पोस्टरों की प्रदर्शनी का उद्घाटन प्रसिद्द कथाकार अवधेश श्रीवास्तव
द्वारा किया गया। इस दौरान कुँवर रवीन्द्र के कविता-पोस्टरों पर चर्चा हुई। इस
सत्र का सञ्चालन डॉ0 अजीत प्रियदर्शी ने किया। उन्होंने अपनी प्रस्तावना में बताया
कि कुँवर रवीन्द्र द्वारा बनाए गए कवर पृष्ठ और पोस्टर्स की संख्या हजारों में है।
उनके तूलिका-कर्म के समानांतर उनकी कविता में भी नए प्रयोगों की अकुलाहट मिलती है।
उनके अनुसार कला साधना का पहला और अंतिम लक्ष्य मनुष्यता को बचाए रखना है।
रवीन्द्र के तूलिका-कर्म में यह कोशिश दिखती है। डॉ० अजीत के अनुसार रवीन्द्र अपने
चित्रों में चटक रंगों का और विशेषकर हरे रंग का प्रयोग अधिक करते हैं। हरा रंग
जीवन और आशा का रंग है। प्रकृति और उसकी मनोहारी लीला का चित्रांकन उनका पसंदीदा
तूलिका-कर्म है। माडर्न आर्ट की उलझी हुई चित्र–संरचना से वे दूर हैं। रवीन्द्र के
चित्र लोक-जीवन के करीब हैं और उनमें यथार्थवाद दिखता है। वे अपने चित्रों से सही
और सटीक मैसेज भी देते हैं। अजीत प्रियदर्शी ने यह भी कहा कि वे चित्र-कर्म के कला
पारखी नहीं है और उनकी निगाह एक आम आदमी की नजर है। इस नज़रिए से भी हम उसमें बहुत
कुछ पाते हैं। उन्होंने कुँवर रवीन्द्र की चित्रकारी पर अपनी राय व्यक्त करने के
लिए सबसे पहले प्रेमनंदन का आह्वान किया।
प्रेमनंदन ने कहा की कुँवर रवीन्द्र
के बारे में मैं क्या बोलूँ; वे जितने अच्छे चित्रकार एवं कवि हैं उतने ही अच्छे
इंसान भी हैं। उनके चित्रों में कविता दिखती है और उनकी कविता में चित्र। इनके
चित्र जीवन से जुड़े हुए हैं और वे अपनी बात प्रतीकों के माध्यम से करते हैं। कुँवर
रवीन्द्र के पचास फीसद चित्रों में एक चिड़िया होती है, जो जीवन, आशा और
प्रतिबद्धता का प्रतीक है। इन्होंने धूसर और चटक रंगों का प्रयोग अधिक किया है।
अजीत प्रियदर्शी ने दूसरे
वक्ता के रूप में गाथांतर की सम्पादिका डॉ0 सोनी पाण्डेय को बुलाने से पहले धूसर
शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि जिससे सारे रंग उपजते हैं, उस धरती का रंग धूसर
होता है।
डॉ0 सोनी पाण्डेय के अनुसार कुँवर
रवीन्द्र के कविता पोस्टर में चिड़िया है। यह चिड़िया बहुत से चित्रों में है। चिड़िया
जो लुप्त होती जा रही है, जो उड़ान का प्रतीक हुआ करती है। एक व्यक्ति आता है जो
टकटकी लगाकर आकाश को देखता है पर क्यों? वह व्यक्ति कभी अकेला है, कभी दो है और
कभी समूह में है, जो गाढ़े रंग में है वह उल्लास और जीवन का प्रतीक है। निराशा का
रंग धूसर है, एक रंग जो सतह से गायब हो रहा है। रवीद्र के चित्र अनमोल हैं। ये तुरंत,
आनन-फानन में कोई भी कवर पृष्ठ तैयार करने की क्षमता रखते हैं। इनकी कविताओं की
चर्चा कम हुई है किन्तु इनके आवरण–पृष्ठ सदैव चर्चा में रहे हैं। चित्रों की तरह
इनका व्यक्तित्व भी सहज है।
सञ्चालन के क्रम में अजीत
प्रियदर्शी ने कहा, रवीन्द्र के चित्रों में स्त्री भी है और स्त्री-विमर्श के
अनेक रूप भी मौजूद हैं।
अगले वक्ता के रूप में तरुण निशांत ने कहा 1965 में ‘फूल नहीं रंग बोलते
हैं’ का प्रादुर्भाव हुआ था और उसके पाँच दशक बाद ‘रंग जो छूट गया है’ सामने है।
प्रश्न यह है कि क्या मानव जीवन की कल्पना रंगों के बिना की जा सकती है, मेरी समझ
में नहीं। रवीन्द्र कवि-चित्रकार भी हैं और चित्रकार-कवि भी। चित्रकार अपने
चित्रों के माध्यम से बोलने वाला कवि है। यह तो एक गंगा-जमुनी सौन्दर्य है। पोस्टर
या चित्र मनोरंजन के साधन मात्र नहीं हैं, यह कथ्य को समझने का एक नया विज़न देते
हैं। कभी रघुराम के चित्रों की बड़ी चर्चा थी। रवीन्द्र के चित्रों में ‘आदमी’ की
आकृति प्रायः दिखाई देती है। एक आम आदमी जिसकी पीड़ा से चित्र में संवेदना आती है।
आज के भागम-भाग में जब आदमी की सम्वेदना चुक गयी है तब एक उदास आदमी की पीड़ा को
कौन साझा करे। उनके चित्रों में प्रायः जो चिड़िया नजर आती है वह एक उत्प्रेरक के
रूप में है। यह चिड़िया आम आदमी को अवसाद से मुक्त करती है। इसके अतिरिक्त
स्त्री-विमर्श के अनेक आयाम रवीन्द्र के चित्रों में उपलब्ध हैं। इनके जो भी चित्र
हैं वे केवल कूची के कयास नहीं हैं, उनमें चित्रकार की आत्मा रमी है इसीलिए उनमें
ताज़गी और रवानगी दिखती है। वे भले कहें कि ‘रंग जो छूट गया है’ पर सच्चाई यह है कि उनसे कोई भी रंग नहीं छूटा है।
अवधेश श्रीवास्तव ने कहा कि कवि या चित्रकार सौन्दर्यदृष्टा होता है। कुँवर
रवीन्द्र ने दूसरों की कविता एवं कल्पना
के गूढ़ भावों को अपने चित्रों में उतारा। उनके रंग और प्रयोग उनकी अपनी मानसिकता
के दर्पण हैं। जिस नजरिए से वे कविता के भावों को पढ़ते हैं वह स्वयं रचनाकार की
जिज्ञासा का विषय होता है। उनकी नजर कवि की आवश्यकता है। मनुष्य और चिड़िया के जीवन
के अनेक रंग इनके चित्रों में पाए जाते हैं।
अजीत प्रियदर्शी ने अपने संचालन क्रम को आगे बढ़ाते हुए कहा कि दो कला
माध्यमों का ऐसा अद्भुत संगम कम देखने को मिलता है। उनके अनुसार यह पारखी कलाकार
काव्य पंक्तियों को रंगों के कोलाज से नई सज्जा देता है। उनके पास अनुरोधों का
तांता लगा रहता है और इस कारण वे सदैव कार्य के अत्यधिक दबाव में रहते हैं।
राजेन्द्र वर्मा ने कहा कि रचनाकार का परिचय उसकी कला से होता है। कविता में
चित्र होते हैं और चित्र में कविता। कुँवर रवीन्द्र को दोनों ही क्षेत्र में महारत
हासिल है। इनके चित्रों में विसंगति, त्रासदी, जीवन और जिजीविषा के चटक रंग
विद्यमान हैं। इनकी कला में कविता और चित्र दोनों एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं।
अजीत प्रियदर्शी ने अध्यक्ष नरेंद्र पुण्डरीक के आवाह्न से पूर्व कहा कि
समकालीन कविता को कुँवर रवीन्द्र के चित्रों से एक नया आकाश मिला है।
अध्यक्ष नरेंद्र पुण्डरीक ने भी रवीन्द्र के चित्रों को जीवन की
अभिव्यक्ति माना। उनकी चिड़िया जीवन की जिजीविषा का प्रतीक है। वह भी मुक्त आकाश
चाहती है।
कार्यक्रम के द्वतीय सत्र में चर्चा का विषय था– ‘समकालीन कविता में हाशिए
के सवाल’। इस अवसर पर मंच पर नरेश सक्सेना, डॉ० नलिन रंजन सिंह एवं डॉ० धनञ्जय सिह
जैसी हस्तियाँ विद्यमान थीं। इनकी उपस्थिति में चर्चा सत्र के प्रारम्भ से ठीक
पूर्व डॉ० भारती सिंह के सञ्चालन में प्रदीप कुशवाहा की काव्य कृति ‘खुलती परतें‘ तथा उदीयमान साहित्यकार बृजेश
नीरज के निबंध संग्रह ’राजनीति के रंग’ का भव्य विमोचन हुआ। विमोचन के उपरान्त
प्रस्तावित विषय पर चर्चा हेतु पहला नाम जिसका आह्वान किया गया वह थे युवा कवि एवं
रचनाकार- राहुल देव।
राहुल देव के अनुसार हिन्दी कविता दीर्घकाल तक छायावादी रूमानियत में
डूबी रही, जिससे उबरने में उसे समय लगा। राजनीतिक एवं सामाजिक परिवर्तनों का भी
उसकी धारा पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। प्रयोगवाद के बाद जब काव्यधारा प्रगतिवाद की
और उन्मुख हुई तब हिन्दी कविता में हाशिए पर पड़े दलित, आदिवासी और स्त्री विमर्श की
अभिव्यक्ति दिखाई दी। वह दलित जो शोषण का शिकार है, समाज का वह वर्ग जो भूखा-नंगा
है, उसकी उपस्थिति कविता में संभव हो सकी। कविताओं ने जब अपने स्वर को अधिकाधिक
मुखर किया तो एक किसान भी अपनी आवाज बुलंद करने लगा। समकालीन साहित्य में वे विषय आए
जो लम्बे समय तक नज़रअंदाज़ रहे। अपनी
संस्कृति और भाषा बचाना भी आज एक चुनौती है। अब नए कवियों को रचना से पूर्व
शोषितों के पास जाना होगा, उनकी पीड़ा को आत्मसात करना होगा। आज की कविता की अपनी
संवेदना है जो उसे निर्बाध गति देने में सक्षम है।
प्रेमनंदन ने अपने संक्षिप्त
भाषण में कहा कि लोक के दर्द का सही रंग अभी तक कविता में नहीं आ पाया है इसलिए
लोक पीड़ा के स्वर अभी तक हाशिए पर हैं।
डॉ0 अजीत प्रियदर्शी ने कहा कि
हाशिए के सवाल हाशिए के समाज से जुड़े हैं। ऐसा कोई समाज है ही नहीं जिसमें हाशिए
के लोग न हों। इसी वर्ग को कविता में लाना हाशिए की वास्तविक चिंता करना है।
स्त्री-विमर्श के सभी बिन्दु हाशिए पर रहे हैं। दलित महिलाएँ हमेशा से दोहरा दबाव
झेलती आयी हैं। महिला का वह दर्द, जब आक्रोशित पति अपनी कुंठा अपनी पत्नी पर
उतारता है, यह भी हाशिए का सवाल है। किसान और पहाड़ का जीवन भी अभी तक हाशिए पर ही
है।
भावना मिश्रा के अनुसार समाज
या कविता में पढ़ी-लिखी विशेषकर नागर महिलाओं पर चर्चा होती है किन्तु गाँव की नारी
लगातार हाशिए पर है।
उमाशंकर परमार के अनुसार आज
नए-नए हाशिये पैदा किए गए हैं। बाजारीकृत लोकतंत्र हाशिए पैदा करता है। क्लास
स्ट्रगल पर आज बात ही नहीं हो रही। आसमान की ओर आशा भरी निगाह से ताकता किसान आज हाशिए
पर है। नए किस्म के हाशिए लगातार पैदा हो रहे हैं। समाज के उच्च वर्ग में भी हाशिए
हैं। इन नए पैदा हो रहे हाशियों की पहचान और उनसे जुड़े सवालों को कविता में
रेखांकित किया जाना बहुत जरूरी है। अस्मिता का मुद्दा हाशिए का मुद्दा है। हाशिए का
सबसे बड़ा संकट हाशिए की सही पहचान का संकट है।
डॉ0 नलिन रंजन सिंह ने आलोचना
के संकट पर बात करते हुये कहा कि वर्तमान समय में आलोचना की दो शैलियाँ विकसित हैं।
एक वाह–वाह शैली और दूसरी थू–थू शैली और इसी कारण आलोचना हाशिए पर है। उनके अनुसार
उमा शंकर परमार की चिंता वस्तुतः मार्क्सवादी चिंतन से प्रभावित है। जब हम दलित
साहित्य को ढंग से नहीं पढ़ेंगे तो मार्क्सवादी चिंतन लेकर हम हाशिए के प्रश्न पर
बार-बार चूकेंगे। डॉ0 नलिन के अनुसार मजदूर, बाल मजदूर के साथ ही श्रम के बटवारे
की स्थिति में भी हाशिया है। हाशिए पर स्थित वर्ग के लिए भी लिखा जा रहा है और
बहुत लिखा जा रहा है, लोग पढ़ते नहीं हैं और ढेर सारा हल्ला मचाते हैं। लोक का
महत्त्व है परन्तु उसे फैशन की तरह न लिया जाए। हाशिए के सवालों के संकट को पहचानना
अधिक जरूरी है।
प्रसिद्द कवि एवं साहित्यकार
नरेश सक्सेना ने कहा कि जब तक हम पूरे समाज की चिंता नहीं करेंगे कोई न कोई वर्ग हाशिए
पर रहेगा। हम किसी खास वर्ग को हाशिए पर रखकर उसकी चिंता करेंगे तो एक दिन वह भी हाशिए
पर आएगा जो आज हाशिए पर नहीं है। आज तो सारी कविता ही हाशिए पर है और हाशिए से भी
बाहर जा रही है। यहाँ वर्ग-संघर्ष से अधिक वर्ण-संघर्ष की समस्या है। समाज में
ऊर्जा और चेतना की कमी नहीं है किन्तु लगन की कमी है। जो लोग सबसे अधिक हाशिए पर
हैं उन्हें मध्य और उच्च वर्ग मौका ही नहीं देगा। उन्हें मोर्चा लेना होगा, हाशिए के
लोगों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी।
अध्यक्ष डॉ0 धनञ्जय सिंह ने
कहा कि हाशिए के सवाल पर यदि पक्षधरता की बात उठती है तो वह विश्वसनीय होनी चाहिए।
उन्होंने सफ़दर हाशमी का उदहारण देते हुए कहा कि वह कलाकार अपने ही समर्थकों के बीच,
जिनके हितों के लिए वह नाटक पेश करने वाला
था, लाठियों से पीट-पीटकर मार दिया गया। यही विश्वसनीयता का अभाव है। इंदिरा गांधी
ने जब आपातकाल लगाया तब उसके विरोध में कविताएँ रची गईं, लिखने वालों का जमकर
विरोध हुआ किन्तु कालान्तर में वे विरोध करने वाले ही उन कविताओं की फरमाईश करने
लगे। तात्पर्य यह है कि जब तक पीड़ा का आत्म अनुभव नहीं होगा तब तक हाशिए के सवाल
बने रहेंगे।
कार्यक्रम के तीसरे सत्र में
डॉ0 मधुकर अष्ठाना की अध्यक्षता और मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ के सञ्चालन में काव्य
पाठ प्रारम्भ हुआ।
कवयित्री कल्पना मनोरमा ने गाँव की चाँदनी रात का एक मोहक दृश्य प्रस्तुत
करते हुए पढ़ा–
गाँव के सन्नाटे में
जब खिलती है चाँदनी रात
कौन पूछे, किससे बात?
कवयित्री मीना पाठक पुरुषों द्वारा नारियों को अपमानित किए जाने की पीड़ा
का निदर्शन कुछ यूँ करती हैं-
हे पुरुष!
कैसे खुश होते हो
स्त्री के नेत्रों में अश्रु ला
उसे असीम पीड़ा देकर
कवयित्री आभा खरे को भी वैसी ही शिकायत कुछ बदले से अंदाज में है-
वो कहते हैं– उन्हें नहीं भाती
चुप रहने वाली स्त्रियाँ
क्योंकि वे जब चुप होती हैं तो
उनका दिमाग बोलता है
और जब दिमाग बोलता है तो
उनकी ‘कुछ तो गड़बड़ है?’
वाली दृष्टि जाग उठती है
युवा और उदीयमान कवि राहुल देव ने कुछ अच्छी कविताएँ सुनाईं और एक सुन्दर
गीत से सबका मन मोह लिया। गीत के स्वर इस प्रकार हैं-
इस कदर हर पल यहाँ संत्रास है
आदमी ही आदमी का ग्रास है
प्रद्युम्न कुमार सिंह ने आत्म-हत्या की बढ़ती संख्या पर चिंता कुछ इस
प्रकार जताई–
वो जानते हैं
आत्म ह्त्या के पहले वह पागल नहीं था
वो जानते हैं
ऊसर धूसर चीथड़े सी फटी
धरती पर औंधे मुँह पड़ी लाश
शराबी की नहीं है
प्रेम नंदन ने कटते-घटते पेड़ों की व्यथा दर्शाते हुए कहा –
अब पेड़ चाहे तो
चेहरा पहन ले
या फिर चेहरा पेड़ हो जाए
कवयित्री संध्या सिंह ने अपनी प्रसिद्ध कविता का पाठ किया-
मावस वाली रात अचानक जुगनू रूठ गए
अरुण श्री की कविता की भाव सौन्दर्य देखते ही बनता है–
सोचना कि जैसे कोई किसान
अनाज की बालियाँ याद करता हो
बर्फबारी की हार
जैसे मुँह-अँधेरे शहर को हाँक दिया गया बूढा बैल
चटनी की याद में बिसूरता है
खरसान ताकते हुए
कवयित्री सोनी पाण्डेय ने ‘भूख‘ को बिम्बों से परिभाषित किया –
तुमने फावड़ा उठा भूख की खेती की
प्रकृति का कैनवास मेरे हिस्से आया
सुनो! मैंने बचा रखे हैं सारे रंग
संवेदना के, तुम सोचना
भूख का रंग लाल कैसे हुआ?
कवि तरुण निशांत की सहन-शक्ति और असमर्थता का द्वन्द एक नया सन्देश देता
है–
आतप्त मैं
रेगिस्तान में रेत की तरह
झेलता रहा अपनी अग्नि
अपने अन्दर ही समेटकर
मगर नहीं छू सकता
उजली सी कोमल सी नाजुक सी बर्फ को
उफ़! कभी नहीं, कभी नहीं !
कवयित्री सुशीला पुरी ने नदियों की यातना को समझने का यत्न इस प्रकार
किया-
मैं चाहती हूँ कि हम
नदियों की यातना को समझें
और जब वे सूखने लगें
तब यह कहकर न भागें
कि अपुन का क्या जाता है
कवयित्री भावना मिश्रा ने अपनी कविता में बीसवीं सदी की महान प्रतिभा इजाडोरा डंकन (1878-1927) जो महान नर्तकी
और एक अत्यंत विवादास्पद और उन्मुक्त स्त्री थी और जिन्होंने आधुनिक योरपीय नृत्य
की संरचना की, उनका स्मरण निम्न प्रकार किया-
इजाडोरा हमें
फिर प्रतीक्षा है
इस शापित युग
में हमें प्रतीक्षा है
मानवता के नृत्य
की
जिसमें झलकता हो
सृष्टि का समन्वय
कवयित्री
प्रज्ञा सिंह का सौन्दर्य बोध निम्न पंक्तियों में मुखर हुआ –
सुन्दरी!
तुम्हारे बालों
में लगी
हरी धानी
क्लिपें
मैं चाहती हूँ
हमेशा बनी रहें
नरेंद्र
पुण्डरीक की कविता में पानी और आँसू के बिम्ब इस प्रकार रूपायित हुए –
पानी सबसे अधिक
पतला होता है
सो कठोर से कठोर
आँखों से टपककर
बहने लगता है
प्रसिद्ध गीतकार/
हिंदी गजलकार डॉ०0 धनंजय सिंह ने आपातकाल
के दौरान लिखी अपनी कालजयी गजल ‘अब तो सड़कों पर उठाकर फन चला करते है सांप’ पढ़ी
किन्तु श्रोता इतने से तृप्त नहीं हुए अतः उन्हें दूसरी गजल भी सुनानी पड़ी–
धुन्धमय आकाश का
मौसम है मेरे देश में
मौत के सहवास का
मौसम है मेरे देश में
कुँवर रवीन्द्र
ने अपनी अलग अंदाज की शैली में एक कविता पढ़ी–
मैं सीढ़ियाँ चढ़ता
नहीं
क्योंकि सीढ़ियों
से उतरना पड़ता है
इसके बदले
अपना कद ऊँचा करना
चाहता हूँ मैं
अंतिम कवि के रूप में अध्यक्ष डॉ0 मधुकर अस्थाना ने अपना नवगीत पढ़ा जो
उपमान वैशिष्ट्य के कारण सराहा गया –
चाँदी चावल सोना रोटी
हुयी प्लैटिनम दाल
अब तो सपनो का भी मन में
पड़ने लगा अकाल
इसी के साथ कार्यक्रम का तीसरा
सत्र समाप्त हुआ। चौथे सत्र में स्थानीय कवियों को काव्य पाठ करने का अवसर दिया
गया। इस सत्र का सञ्चालन भी मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज‘ ने किया। प्रथम कवि के रूप
में विपिन मलीहाबादी को मंच पर आमंत्रित किया गया। उन्होंने अपनी कविता में कौमी
एकता का एक नया विकल्प प्रस्तुत करते हुए कहा–
चलो आज तुम हिन्दू हम मुसलमान बन जाएँ
शायद ऐसे ही हम दोनों इंसान बन जाएँ
डॉ0 शरदिंदु मुकर्जी ने अपनी भावपूर्ण कविता ‘शीशमहल‘ का पाठ किया-
जब भी उनसे बात की
मूक नयन की नीरवता लेकर
वे खिलखिलाकर बिखर गए
टूटे हुए शीशमहल की तरह
मेरे लहूलुहान पैरों को
कोई शिकायत नहीं
बस बटोर रहा हूँ
इन काँच के टुकड़ों को
प्रदीप कुशवाहा ने मातृ-दिवस पर माँ की याद में कविता पढ़ी-
कोई याद रहे न रहे
कोई साथ रहे या न रहे
हम रहे या न रहे
तुम रहो या न रहो
हमेशा रहती हैं
उसकी यादें
माँ !
डॉ० सुभाष चन्द्र ‘गुरुदेव’ ने व्यंग करते हुए अपना सन्देश इस प्रकार
व्यक्त किया-
अपने-अपने घर आँगन में फूल नहीं अब काँटे रखना
कही एकता न आ फटके आपस में तुम बांटे रखना
विमल चंद्राकर ने ‘माँ‘ शीर्षक से एक लम्बी कविता पढ़ी-
सब कुछ याद है माँ
आँचल में तेरे बेख़ौफ़ छुप जाता था
तुम्हारी ही वह बेहतर तालीम
जब कि तुम्हारा खुद का पढ़ी न होना
मेरे लिए प्रथम पाठ, सीखा जितना
सब याद है मुझको माँ
सुधांशु पन्त ने एलीट क्लास पर
व्यंग्य करते हुए अपनी भावना कुछ इस तरह प्रकट की–
एक आठ करोड़ का घर
जिसमें है आठ लाख का कुत्ता
साल के हर महीने में
आठ हजार रुपये की डाइट बाला
शहर के नामचीन गजलकार ‘कुंवर कुसुमेश’ ने अपनी गजल इस प्रकार पढ़ी-
बुजुर्गों का मेरे सिर पर अगर साया नहीं होता
गमे-दौरां से बचने का कोई रस्ता नहीं होता
डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने माँ के सम्मान में रचे अपने दो गीत सुनाए,
बानगी इस प्रकार है–
लोरी गीत सुनाए कोई
शिशु को थपक सुलाए कोई
रजनी में अधनींदी माँ के जब लहराते स्वर मधुबैने
सौ-सौ गीत लिखे है मैंने
प्रस्तुति- डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव
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